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शोध प्रबन्ध सार ...113 से सभी दोष नष्ट नहीं हो सकते। जैसे शरीर के विभिन्न अंगों का रोग दूर करने के लिए अनेक प्रकार की औषधियाँ लेनी पड़ती है। वैसे ही आत्मा के अनेक जाति के रोगों का निवारण करने के लिए भी अनेक उपाय चाहिए। प्रतिक्रमण की क्रिया में तथाविध अनेक उपायों का समावेश है।
यद्यपि प्रतिक्रमण षडावश्यक में समाविष्ट है फिर भी उन छहों में प्रतिक्रमण का महत्त्व कुछ विशिष्ट है। षडावश्यक की शेष क्रियाएँ जैसेसामायिक, वंदन, कायोत्सर्ग, चतुर्विंशतिस्तव आदि की साधना स्वेच्छा से कभी भी की जा सकती है किन्तु प्रतिक्रमण क्रिया का एक निर्धारित समय है। परिस्थितिवश या अपवाद रूप में कभी कोई साधक उससे च्युत भले ही हो जाए परन्तु वस्तुत: वह उसे अन्य काल में नहीं कर सकता। शेष आवश्यकों में अन्य गुणों का चिंतन किया जाता है वहीं प्रतिक्रमण के द्वारा स्व दोषों का परिशीलन एवं परिशोधन करते हुए स्वयं को शुद्ध बनाया जाता है।
कई लोगों की मान्यता है कि प्रतिक्रमण एक बार पापों का क्षय कर पुन: उसी पाप कार्य को करने की छूट प्रदान करता है, किन्तु यह एक भ्रमित मान्यता है क्योंकि किसी भी गलत क्रिया को माफी मांगकर बार-बार दोहराना किसी भी प्रकार समुचित नहीं हो सकता। यदि ऐसा किया जाए तो फिर वह क्रिया मात्र तोता रटन बनकर रह जाती है। यथार्थः प्रतिक्रमण कुसंस्कारों को विगलित करने का अचूक उपाय है।
प्रतिक्रमण के मुख्य हेतु- प्रतिक्रमण एक अन्तर्मुखी साधना है। अनंतकाल से आत्मा के साथ संलग्न विषय-कषायों को निष्कासित करने के लिए यह एक अपूर्व साधना है। शास्त्रकारों ने अपने अनुभव ज्ञान एवं मौलिक चिन्तन के आधार पर प्रतिक्रमण क्रिया के निम्न हेतु बताए हैं' • क्रोधादि विकृतियों के निराकरण के लिए। • मिथ्यात्व आदि दोषों का प्रक्षालन करने के लिए। • भूलों का संशोधन करने के लिए। • सम्यकदर्शन आदि की पुष्टि के लिए। • पाप कर्मों का क्षय करने के लिए।
किन स्थितियों में प्रतिक्रमण करें? प्रतिक्रमण मन शुद्धि की एक अमूल्य विद्या है। हमारे द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप से अतिक्रमण की अनेक क्रियाएँ