Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
100... शोध प्रबन्ध सार
कारण उसके न तो प्रगाढ़ कर्मों का बंधन होता है और न ही लोक व्यवहार में उसे कठोर सजा दी जाती है।
छोटी गलतियों को यदि गौण कर दिया जाए तो वही बड़े अपराध का रूप धारण कर लेती हैं। जैसे छोटा सा कर्ज न चुकाने पर वह ब्याज के कारण एक बड़ी रकम का रूप धारण कर लेता है। बच्चों को बचपन में पेन्सिल, रबड़ आदि की चोरी करने से न रोकने पर वह क्रियाएँ उन्हें भविष्य में बड़ा अपराधी बना देती है। जैसे एक झुंठ सौ झूठ बुलवाता है वैसे ही एक पाप को स्वीकार न करने पर वह सौ नए पाप कार्यों में हेतुभूत बनता है।
आलोचना गुरुमुख से ही क्यों? कई बार प्रश्न उठता है कि आलोचना गुरुमुख से ही क्यों स्वीकार की जाए ? अंत:करण में यदि पाप स्वीकार की भावना है तो स्वयं भी तो उस दोष की आलोचना ग्रहण कर सकते हैं।
स्वयं के द्वारा आलोचना स्वीकृत करने से अपराधवृत्ति न्यून होने की संभावना बहुत कम रहती है।
गुरु दीर्घ अनुभवी एवं सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञाता होते हैं अतः वे अपराध के पीछे रहे भावों को समझकर तदनुरूप प्रायश्चित्त देते हैं। स्वयं आलोचना स्वीकृत करने पर वह संभव नहीं है।
वर्तमान में अधिकांश लोग आलोचना के प्रति लापरवाही बरतते हुए देखे जाते हैं। कई लोगों को गुरु से संकोच होता है तो कोई अपनी छवि बिगाड़ना नहीं चाहते, कुछ लोगों को पाप एवं कर्म बंधन का भय ही नहीं होता।
आज आलोचना देने योग्य गीतार्थ गुरुओं की संख्या भी न्यून होती जा रही है। इसके बावजूद भी यदि आलोचक की भाव शुद्धि है तो गुरु कैसे भी हों परन्तु वह भावों द्वारा अपनी निर्जरा अवश्य करता है।
पण्डित आशाधरजी कहते हैं जिसका चित्त सद्गुरु द्वारा दिए गए प्रायश्चित्त में रमता है उसका अन्तर्मन जीवन रूपी दर्पण में मुख के समान चमकता है।
ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से यदि पाप स्मृति में न आ रहा हो तो योग्य गुरु उसे नानाविध प्रकार से आलोचनार्ह को याद दिलवाते हैं।
प्रायश्चित्त पर शोध कार्य की उपयुज्यता - प्रायश्चित्त एक