Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 162
________________ 108...शोध प्रबन्ध सार है। साधक परम शान्ति का अनुभव करता है। अत: अध्यात्म क्षेत्र में अनवरत रूप से गतिशील रहने एवं आत्म स्वरूप की अभिव्यक्ति हेतु आवश्यक क्रिया अपरिहार्य रूप से उपादेय है। आवश्यक क्रिया का उद्देश्य- आवश्यक क्रिया जैनत्व का मुख्य अंग है। इस क्रिया के माध्यम से आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक जीवन समृद्ध एवं सशक्त बनता है। षडावश्यक का मूल उद्देश्य अध्यात्म पक्ष को परिपुष्ट करते हुए शाश्वत सुख की उपलब्धि करना है। यहाँ व्यावहारिक पक्ष गौण है क्योंकि अन्तरंग शुद्धि के साथ व्यवहार की शुद्धि स्वतः ही हो जाती है। छ: आवश्यकों में प्रत्येक आवश्यक की फलश्रुति अध्यात्म से परिपूर्ण है। षडावश्यक की नित्यप्रति साधना का एक प्रमुख कारण अपने लक्ष्य को स्मृति में रखना एवं उस आत्म स्वरूप प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर रहना है। षडावश्यक साधना का एक उद्देश्य आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट कर वैभाविक कर्म पुद्गलों का निर्गमन करना है। षडावश्यक गुणवर्धन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। ___ यदि व्यावहारिक धरातल पर विचार करें तो इसकी मौलिकता मननीय है। यह साधारण मानव जाति के कदम-कदम पर सहायक होने वाली साधना है। समता जीवन यात्रा को सुखद एवं आनंद से परिपूर्ण बनाती है। जीवन में श्रेष्ठ बनने का लक्ष्य निर्माण करती है। कर्तव्य पालन के प्रति सचेत और स्व दोष निरीक्षण कर इनके संशोधन हेतु प्रेरित करती है। एकाग्रता पूर्वक वस्तु स्वरूप को समझने की शक्ति उत्पन्न करती है। इस तरह मानसिक प्रसन्नता एवं स्थिरता के द्वारा स्वस्थता एवं सफलता का आस्वाद किया जा सकता है। षडावश्यक पर शोध कार्य कितना प्रासंगिक? जैन विधिविधानों में षडावश्यक का विशिष्ट स्थान है। तीर्थ की स्थापना के बाद सर्वप्रथम इसी आचार का निरुपण होता है। प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में आवश्यक का विधान नियमत: देखा जाता है। यदि वैयक्तिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस शोध कार्य की आवश्यकता पर विचार करें तो वर्तमान आपाधापी के युग में इसकी नितान्त जरुरत है। यह क्रोधादि आवेशों को शान्त करने की अभूतपूर्व शिक्षा प्रदान करता है। आज सामाजिक एवं परिवारिक विघटन का मुख्य कारण ईर्ष्या, स्वार्थ, आवेश आदि

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