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82...शोध प्रबन्ध सार प्रकाशित किया है। इसके माध्यम से जन सामान्य को अपनी मूल पृष्ठभूमि का ज्ञान होगा।
जैन श्रुतागमों का ज्ञान जितना आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है उतने ही महत्त्वपूर्ण है उनके अध्ययन सम्बन्धी नियमोपनियम। उन्हीं में से एक नियम है अनध्याय काल। आगम शास्त्रों को आत्मस्थ करने के लिए जिन परिस्थितियों एवं जिस समय का निषेध किया गया है उनमें अध्ययन करना अनध्याय कहलाता है। अतः स्वाध्याय हेतु प्रतिषिद्ध काल अनध्याय काल है। जैनागमों में इसके 32 प्रकार बताए गए हैं। प्रस्तुत द्वितीय अध्याय में अनध्याय विधि पर आगमिक चिन्तन अभिव्यक्त किया गया है। यहाँ पर अनध्याय का अर्थ, अनध्याय के विविध प्रकार, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करने के कारण, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से लगने वाले दोष, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के आपवादिक कारण, अस्वाध्याय काल विषयक ऐतिहासिक अवधारणा आदि विविध घटकों पर चर्चा की गई है।
द्वितीय अध्याय के द्वारा अनध्याय काल का स्पष्ट स्वरूप समझने के बाद तृतीय अध्याय में स्वाध्याय विधि का प्रायोगिक स्वरूप प्रस्तुत किया है। __ जैन धर्म में स्वाध्याय को ज्ञानोपासना का अनिवार्य अंग माना है। स्वाध्याय आत्म विशुद्धि का श्रेष्ठतम उपाय है। आगमों में स्वाध्याय को विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में परिभाषित किया गया है। सार रूप में प्रमाद का त्याग करके ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है।
वर्णित अध्याय में स्वाध्याय विधि पर विविध दृष्टियों से विचार किया गया है। मुख्यतया स्वाध्याय के प्रकार, स्वाध्याय का फल, स्वाध्याय आवश्यक क्यों? स्वाध्याय न करने के दोष, स्वाध्याय काल सम्बन्धी कुछ अपवाद, दिगम्बर परम्परा में स्वाध्याय काल सम्बन्धी मन्तव्य आदि विशिष्ट तथ्यों को उजागर करते हुए स्वाध्याय को भाव रोगों का चिकित्सक सिद्ध किया है।
चतुर्थ अध्याय में योगोद्वहन पर सुविस्तृत चर्चा की गई है। योगोद्वहन में योग और उद्वहन इन दो शब्दों का समावेश होता है। शाब्दिक दृष्टि से मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों को ऊर्ध्वाभिमुखी करना योगोद्वहन है।
चर्चित अध्याय में योगोद्वहन का अर्थ घटन करते हुए योग के प्रकार, योगवाही-योगप्रवर्तक गुरु एवं योगोद्वहन में सहायक मुनि के लक्षण प्रस्तुत है।