Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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80... शोध प्रबन्ध सार
जरूरी है। वैसे सर्वज्ञ परमात्मा की आप्तवाणी को जीवन में हृदयंगम करने हेतु त्याग, समर्पण, विनय, पूज्यभाव, लघुता आदि गुण होना अत्यंत आवश्यक है। यद्यपि योगोद्वहन का मूल हेतु श्रुताभ्यास है, परन्तु ज्ञान के साथ विनय एवं लघुता अत्यंत जरुरी है वरना कई बार अधिक ज्ञान अहंकार में परिवर्तित हो जाता है। ज्ञान का अजीर्ण हो जाता है। इस अनुष्ठान से तपाराधना, गुरुनिश्रा,. सहधर्मी सेवा, स्वाध्याय आदि अनेक लाभ प्राप्त होते हैं । आगम सूत्रों के प्रति बहुमान बढ़ता है। ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा होती है । मन, वचन, काया का निरोध एकाग्रता में कारणभूत बनता है। एकाग्रता पूर्वक किया गया ज्ञानार्जन चिरस्थायी एवं स्व-पर उपयोगी बनता है। तप करने से अन्य कई अनावश्यक कार्य स्वयमेव ही अल्प हो जाते हैं तथा व्यावहारिक प्रवृत्तियाँ भी कम हो जाती है। लौकिक जगत की मान्यता है कि ज्ञानार्जन के समय पौष्टिक आहार लेना चाहिए जबकि योगवहन काल में ज्ञान के साथ तप करवाया जाता है, यह विपरीत वृत्ति क्यों?
अनुभूति के स्तर पर यदि विचार करें तो यह स्पष्ट है कि पौष्टिक आहार प्रमाद, आसक्ति, चंचलता आदि में वर्धन करता है। योगोद्वहन में जागरूकता एवं एकाग्रता दोनों ही आवश्यक है । जिस तरह के अन्न का सेवन किया जाता है जीवन वैसा ही बनता है । गरिष्ठ आहार का त्याग प्रमाद को दूर कर सजगता एवं जागृति बढ़ाता है तथा योगोद्वहन के मूल हेतु ज्ञानाभ्यास में सहायक बनता है।
योगोहन काल में गुरु निश्रा परमावश्यक क्यों ? विश्व की हर परम्परा में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है। यदि हम प्राचीन भारतीय संस्कृति पर दृष्टिपात करें तो जीवन की यौवन अवस्था गुरुकुल वास में ही बिताई जाती थी। बाह्य जीवन व्यवहार से निवृत्ति होने के कारण गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान सुगम्य होता था। गुरुजनों के अन्तरंग आशीष की प्राप्ति होती थी । गुरु निश्रा में रहने से गुरुजनों का अनुभव एवं परम्परा ज्ञान यह दोनों ही प्राप्त होते हैं। गुरु कृपा से कठिन ज्ञान भी सरल बन जाता है।
आधुनिक जगत में योगोद्वहन की प्रासंगिकता - मुनि जीवन में योगोद्वहन की आवश्यकता उसी तरह स्वीकारी गई है जैसे एक बच्चे के जीवन में