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90...शोध प्रबन्य सार सुखों में उलझा रहता है लेकिन मुक्तिवादी धर्म के अनुसार सुख और दुःख दोनों ही बन्धन है। जीव प्रयत्नपूर्वक सुख की प्राप्ति तो कर लेता है लेकिन उसके उदय में मश्गुल होकर पुन: नए पाप कर्मों का ही बंधन करता है। इससे शुभ कर्म क्षीण होकर अशुभ कर्मों का पुनः उदय प्रारंभ हो जाता है। सुख की कामना से तप करना दुख की महागर्त को आमंत्रित करने के समान ही है। तप के द्वारा भौतिक कामना करना अमृत के द्वारा कीचड़ से सने हुए पापों को धोने के समान है। कामनायुक्त किया गया तप मात्र स्वर्ग की प्राप्ति करवा सकता है वहीं कामना रहित तप मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
तप से होने वाले लाभ- कर्म शरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तप कहलाता है। तीर्थंकरों के अनुसार तपस्या से आत्मा की परिशुद्धि होती है, सम्यक्त्व निर्मल बनता है तथा चेतना के स्वाभाविक गुणों का प्रकटीकरण होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार 'तवेण वोदाणं जणयइ' अर्थात तप से जीव पूर्व संचित कर्मों का क्षय करके आत्मशुद्धि को प्राप्त करता है।
वैदिक दर्शन के अनुसार तप के द्वारा संसार की सर्वाधिक दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है। तप का मुख्य लाभ निर्वाण प्राप्ति है।
वर्तमान युग में तप की उपादेयता- आधुनिक समाज में तप को देह दण्डन के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस देह दण्डन को यदि कुछ ढीले स्तर में लिया जाए तो उसकी व्यावहारिक उपादेयता सिद्ध हो जाती है। जैसे व्यायाम के रूप में किया गया देह दण्डन स्वास्थ्य रक्षा एवं संचय में हेतुभूत बनकर व्यवहार के क्षेत्र में लाभप्रद सिद्ध होता है। वैसे ही तप के द्वारा व्यक्ति कष्ट सहिष्णु बनता है, शक्तियाँ विकसित होती है तथा वासनाओं पर विजय प्राप्त होती है। __ उपवास का अभ्यस्त व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में भोजन प्राप्त न होने पर आकुल-व्याकुल नहीं होता। व्याकुलता शारीरिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से हानिप्रद है। तपस्या के माध्यम से कष्ट सहिष्णु बनकर व्यक्ति सफलता की ऊँचाईयों को प्राप्त कर सकता है।
आधुनिक चिकित्सक एवं वैज्ञानिक इसकी उपादेयता को सिद्ध कर चुके हैं। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का मूल आधार उपवास, ऊनोदरी, रस परित्याग आदि बाह्य तप ही हैं। वर्तमान में प्रचलित Dieting, Boiled food, Veganism आदि किसी न किसी रूप में जैन शास्त्रों में वर्णित तप का ही रूप है।