Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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92...शोध प्रबन्ध सार
इसके द्वारा आम समुदाय तप के शास्त्रीय स्वरूप एवं उसकी आचरण विधि से परिचित हो पाएगा।
द्वितीय अध्याय में तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का विस्तृत विवेचन किया है। तप कर्म निर्जरा का प्रमुख साधन है और प्रायः सभी परम्पराओं में मान्य है। इसी कारण इसके अनेक रूप भी परिलक्षित होते हैं। जैन परम्परा में बाह्य एवं आभ्यंतर ऐसे तप के मुख्य दो भेद किए गए हैं। इसके अन्तर्गत इसके विभिन्न भेद किए गए हैं। यथार्थतः तप के मूल स्वरूप में कोई अंतर नहीं है, तप किसी भी कोटि या श्रेणी का हो वह एकान्तर कर्मों की निर्जरा का ही कारण बनता है। इनमें रही हई विभिन्नता दृष्ट-अदृष्ट, खाद्य-अखाद्य, सामान्य-विशेष पात्र आदि को लेकर है। साधक अपने सामर्थ्य के अनुसार यथेच्छ तप मार्ग का सेवन कर मुक्ति मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। वर्णित अध्याय में तप के बाह्य-आभ्यंतर भेदों का विस्तृत विवेचन किया है। __ इसके माध्यम से तप के विविध पक्षों को सुगमता से समझा जा सकता है।
तप की गरिमा को उजागर करते हुए तप साधना की उपादेयता एवं महत्त्व का प्रतिपादन तृतीय अध्याय में किया गया है।
तप एक सार्वकालिक प्रक्रिया है। प्रत्येक समय में इसकी प्रासंगिकता एवं महत्ता लोक स्वीकृत रही है। चाहे अध्यात्म का क्षेत्र हो या विज्ञान का, चाहे भौतिक सुख समृद्धि हो या आत्मिक सम्पत्ति सबकी प्राप्ति का मार्ग तप ही है। शारीरिक स्वस्थता, मानसिक दृढ़ता, आन्तरिक सम्पन्नता के लिए तप श्रेष्ठ माध्यम है।
प्रस्तुत अध्याय में तप की मौलिकता को उजागर करने वाले सारगर्भित विषयों की चर्चा करते हुए तप की आवश्यकता क्यों? तप साधना का उद्देश्य, तप अन्तराय कर्म का उदय है या नहीं? आसन, ध्यान और प्राणायाम के साथ तप का सम्बन्ध, विविध दृष्टियों से तप साधना की मूल्यवत्ता, तप विधियों के रहस्य, आधुनिक युग में बढ़ता आडम्बर कितना प्रासंगिक? आदि विविध विषयों पर सटीक वर्णन किया गया है। यह अध्याय तप विषयक भ्रान्त मान्यताओं के समाधान एवं उसके महत्त्वपूर्ण घटकों को उजागर करने की अपेक्षा से रचा गया है।
चतुर्थ अध्याय जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में प्रचलित तप विधियों के स्वरूप से सम्बन्धित है।
आगम युग से अब तक जैन परम्परा में अनेक प्रकार के तप प्रचलित हैं। कुछ तप शाश्वत हैं जो हर काल में प्रवर्तित रहते हैं तो कुछ तप कालक्रम से