Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
View full book text
________________
शोध प्रबन्ध सार...91
इस शोध कार्य का उद्देश्य - तप की सार्वकालिक उपादेयता तो सर्वविदित है। व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर भी इसकी महत्ता को स्वीकार किया गया है। प्रायः हर धर्म में किसी न किसी रूप में इसे प्रमुखता भी दी गई है। फिर भी इसका मूल स्वरूप विकृत होता जा रहा है। आज के युवा समाज में तप के प्रति धारणाएँ बदल रही है। कई बार तो नियमित तप आराधक भी इसके मूल रहस्यों को नहीं समझ पाते ।
सर्वप्रथम तो सबसे बड़ी भ्रान्ति जो समाज में देखी जाती है वह है मात्र उपवास आदि क्रियाओं को तप रूप मानना । दूसरी समस्या है तप के पीछे बढता अविवेकयुक्त आडम्बर। तप के महत्व से अनभिज्ञ लोग तपस्या के निमित्त होटलों
प्रीतिभोज का आयोजन करते हैं । तपस्या के पीछे बढ़ते खर्च कई बार मध्यमवर्ग के लोगों को तपाचरण करने में बाधक बनते हैं । कई लोग तप के विभिन्न प्रकारों को नहीं जानते इस कारण वे सामर्थ्य एवं इच्छा होने पर भी समुचित तपाराधना नहीं कर पाते।
आज की ऐसी ही अनेक भ्रान्तियों का निवारण करने एवं पथभ्रमित जन समाज को सही दिशा देने का एक लघु प्रयास इस कृति के माध्यम से किया जा रहा है। तप विषयक समग्र पहलुओं पर मंथन करते हुए इसे सात अध्यायों में विभाजित किया है।
इस खंड के प्रथम अध्याय में तप का स्वरूप एवं उसकी विभिन्न परिभाषाएँ बतायी गयी हैं।
1
'तप' दो वर्णों का अत्यंत लघु शब्द है किन्तु इसकी शक्ति अचिन्त्य है । जैसे अणु छोटा होता है लेकिन उसकी शक्ति विराट है इसी तरह तप की शक्ति भी असीम और विराट है। पूर्वाचार्यों ने तप को अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित किया है। यद्यपि उन व्याख्याओं में अर्थतः एकरूपता है किन्तु बोध की दृष्टि से नवीनता परिलक्षित होती है।
प्रस्तुत अध्याय में तप के स्वरूप को विश्लेषित करते हुए तप शब्द के विभिन्न अर्थ एवं उसकी परिभाषाएँ बताते हुए तप करने के अधिकारी, तपस्वी कौन? तप प्रारम्भ हेतु शुभ दिन, तप प्रारंभ से पूर्व की विधि, प्रत्येक तप में करने योग्य सामान्य विधि, तपस्या ग्रहण विधि आदि सामान्य विषयों का विश्लेषण किया गया है।