Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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86... शोध प्रबन्ध सार
की अपेक्षा इसका स्वरूप अधिक विस्तृत है। आज षडावश्यक प्रतिक्रमण नाम से प्रचलित हो गया है। तेरहवाँ खण्ड जिनपूजा के विविध पक्षों का वर्णन करता है। श्रावक वर्ग के जीवन में जहाँ द्रव्य पूजा का महत्त्व है वहीं श्रमण जीवन में भाव पूजा का। जिन पूजा के माध्यम से ही निज स्वरूप की प्राप्ति की जा सकती है। इस भाग के अंतिम चौदहवें खण्ड में प्रतिष्ठा - अंजनशलाका विधि का महत्त्वपूर्ण स्वरूप प्रस्तुत किया हैं। मूर्तिपूजक जैन संप्रदाय में प्रतिष्ठा एक सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय विधान है। नव निर्मित मन्दिरों को पूर्णता इसी विधान के माध्यम से मिलती है। यह बृहद् स्तर पर आयोजित होने वाला जन मान्य विधान है।
उक्त विषयों पर शोध करने का ध्येय तत्सम्बन्धी मौलिक एवं तात्त्विक विधियों के रहस्यों से परिचित करवाना तथा इनके यर्थाथ स्वरूप को सलक्ष्य आचरण में लाना है।
खण्ड - 9
तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
श्रमण संस्कृति में तपयोग का गौरवपूर्ण स्थान है। सन्त साधकों ने इसे तप प्रधान संस्कृति के नाम से उपमित किया है। तप कर्म श्रमण संस्कृति का प्राण है क्योंकि श्रमण ही तप साधना के मुख्य निर्वाहक होते हैं। तप यह श्रमण की पहचान है। कर्म निर्जरा का मूलभूत साधन है ।
यदि जिन शासन में तप की महत्ता पर विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि जैन शासन का मूल तत्त्व तप है। जैन साधना का प्राण तत्त्व तप है। जैन वाङ्मय का मुख्य सत्त्व तप है। जिस तरह पुष्प की कली-कली में सुगंध समाहित है, तिल के दाने-दाने में द्रवता संचरित है, मिश्री के कण-कण में मधुरता सन्निविष्ट है उसी प्रकार जैन धर्म की प्रत्येक क्रिया में तप परिव्याप्त है। निश्चयतः तप एक आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत है । तपश्चरण के माध्यम से अधोवाहिनी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी किया जा सकता है। तीर्थंकर पुरुषों एवं पूर्वाचार्यों ने तप साधना के द्वारा जो उपार्जित किया वही आज नवनीत के रूप