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शोध प्रबन्ध सार ..79
इसके द्वारा वीतराग वाणी को सम्यक प्रकार से आत्मस्थ किया जा सकता है। आगम साहित्य जैन आचार और विचार की नींव है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आगमों को गणधरों द्वारा रचित माना जाता है। परंतु दिगम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में मूल अंग आगमों का विच्छेद हो गया है। इसी कारण वहाँ आगमों का अध्ययन नहीं किया जाता। उनके यहाँ षटखण्डागम, कषायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र आदि का ही अध्ययन किया जाता है।
श्वेताम्बर परम्परा में मुख्य रूप से तीन परम्पराओं का समायोजन होता है - मूर्तिपूजक, तेरापंथी एवं स्थानकवासी। तीनों ही परम्पराएँ अंग आगम के अध्ययन के लिए योगोद्वहन को आवश्यक मानती है। परंतु स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में इसका तात्पर्य मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को सम्यक दिशा में योजित करना ही माना है। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में यह एक विशिष्ट प्रक्रिया है। प्रत्येक आगम के अध्ययन हेतु विशेष प्रकार का योग तप करवाया जाता है।
श्रावक आगम अध्ययन क्यों नहीं कर सकते ? योगोद्वहन की यह क्रिया मात्र श्रमण वर्ग के लिए उपदिष्ट है क्योंकि गृहस्थ वर्ग को आगम अध्ययन का अधिकार नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि आगम मूलतः देव भाषा अर्थात प्राकृत भाषा में है। सूत्र रूप में निबद्ध होने से इसके छोटे सूत्रों में कई विस्तृत पक्षों का समावेश हो जाता है। इनके अध्ययन में अत्यधिक एकाग्रता, गुरुगम एवं शुद्धता की आवश्यकता है। गृहस्थ के लिए तीनों ही कठिन है। इन परिस्थितियों में वह सम्यक रूप से आगम वाक्यों को समझ नहीं सकता एवं कई बार भ्रान्त मान्यताएँ चित्त में स्थापित हो सकती है । उत्सूत्र प्ररूपणा भी हो सकती है। इसी के साथ आगम अध्ययन का एक क्रम एवं विधि होती है। स्वेच्छा से कभी भी किसी भी आगम का अध्ययन नहीं किया जा सकता। अतः श्रावक वर्ग के लिए आगम अध्ययन निषिद्ध है।
साधु-साध्वी के लिए भी तप पूर्वक आगम अध्ययन का विधान क्यों? कई बार मन में शंका उत्पन्न होती है कि साधु-साध्वी तो निरन्तर तपजप-स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं। फिर उनके लिए योगोद्वहन का विधान क्यों ? किसी भी वस्तु को ग्रहण करने से पूर्व तद्योग्य पात्रता होना अत्यंत आवश्यक है। जैसे सिंह के दूध को ग्रहण करने के लिए स्वर्णपात्र होना नितांत