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शोध प्रबन्ध सार ...77
सर्वप्रथम प्रवर्तिनी पद का संविधान है। जैन श्रमणी संघ में इन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आगम सूत्रों के अनुसार प्रवर्तिनी आचार्य स्थानीय सकल संघ की नायिका होती है। यह श्रमणी संघ का सम्यक संचालन, निश्रावर्ती साध्वी समदाय को रत्नत्रय आदि की आराधना में सतत प्रवृत्त रखते हुए आचार्य कथित निर्देशों का समुचित पालन एवं धर्म संघ का उन्नयन करती है।
चर्चित अध्याय में प्रवर्तिनी पद का अर्थ, प्रवर्तिनी पद की उपादेयता, विविध दृष्टियों से प्रवर्तिनी पद की प्रासंगिकता, प्रवर्तिनी पद हेतु आवश्यक योग्यता, अयोग्य को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित करने से लगने वाले दोष, प्रवर्तिनी पद के अधिकार एवं उसके अपवाद आदि अनेक आवश्यक तथ्यों की गवेषणा की गई है जिससे सकल संघ प्रवर्तिनी पद की गरिमा से परिचित हो
पाएं।
इस खण्ड के अंतिम एकादश अध्याय में पदस्थापना के अनछुए एवं अद्भुत रहस्यों की जानकारी दी गई है। पदस्थापना के अन्तर्गत कई ऐसे विधिविधान होते हैं जिनके रहस्यों से प्राय: जन समुदाय अपरिचित है। इस अध्याय के अन्तर्गत कई ऐसे ही प्रश्न उठाते हुए उनका समाधान किया गया है जैसे कि पदस्थापना से पूर्व केश लोच क्यों? पदग्राही मुनि पर वास निक्षेप क्यों? पदस्थापना के समय स्कन्धकरणी और कम्बल युक्त आसन देने के कारण, सरिमन्त्र एवं घनसार से अक्षत अभिमंत्रण क्यों? आदि अनेक सूक्ष्म रहस्यगत विषयों का शास्त्रोक्त समाधान दिया गया है।
इस अध्याय लेखन का मुख्य ध्येय जनमानस में उत्पन्न होती शंकाओं को पूर्ण रूपेण शान्त करना है।
इस सातवें खण्ड पर शोध करने का मुख्य उद्देश्य वर्तमान में पदव्यवस्था के बिगड़ते एवं बदलते स्वरूप का उचित सम्पादन करना है। आज के युग में पद, सत्ता और सम्पत्ति के गर्व में उसका दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। इस कारण सामाजिक विकास के लिए गठित पद व्यवस्था से समाज को कोई लाभ नहीं हो पा रहा है। इन विषम परिस्थितियों में जैन आगमों में निर्दिष्ट पदव्यवस्था एवं उनके नियम-उपनियम का सार समझते हुए यदि उचित रूप से समाज विकास में उपयोग किया जाए तो एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली हमें प्राप्त हो सकती है।