Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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72... शोध प्रबन्ध सार
कर्मकाण्ड प्रधान होने से वहाँ किसी सुगठित संघ व्यवस्था का अभाव देखा जाता है।
श्रमण संस्कृति तप-त्याग प्रधान संस्कृति है । इसका मूल लक्ष्य गृह त्याग कर संन्यास धर्म का पालन करना है। इस परम्परा में धर्म संघ की समुचित व्यवस्था की गई है। व्यवस्था की अपेक्षा से ही धर्म संघ को चार भागों में विभाजित किया गया है - 1. श्रमण, 2. श्रमणी, 3. श्रावक, 4. श्राविका । इनमें भी श्रमण- श्रमणी को इस व्यवस्था का आधार स्तंभ माना गया है। अतः इन दोनों संघों में ही विशेष रूप से पदव्यवस्था का सूत्रपात हुआ है।
जैन संघ में पद व्यवस्था का विकास- जहाँ तक भिक्षु संघ की पदव्यवस्था का प्रश्न है उनमें भगवान महावीर के समय मात्र गणधर पद की व्यवस्था देखी जाती है। उस युग में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि के नामोल्लेख प्राप्त नहीं होते हैं। गणधर ही श्रमण - श्रमणी संघ की समुचित व्यवस्था देखते थे। जहाँ तक श्रमणी संघ में पदव्यवस्था का प्रश्न है उसमें श्रमणी संघ का दायित्व प्रथम शिष्या चंदनबाला को सौंपा गया परन्तु उन्हें किसी पद पर नियुक्त किया गया हो ऐसा उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होता । अतः उस समय में मात्र गणधर पद की ही व्यवस्था थी यह सुसिद्ध है। इसके अनन्तर ज्यों-ज्यों साधु-साध्वी की संख्या में वृद्धि होने लगी त्यों-त्यों प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए विभिन्न पद व्यवस्थापकों या संचालकों की आवश्यकता महसूस होने लगी और तदनुरूप अनेक पदों का सृजन भी हुआ।
ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर श्वेताम्बर श्रमण संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक, गणी आदि सात पदों का उद्भव हुआ। इन पदों का नामोल्लेख आचार चूला आदि में प्राप्त होता है । दिगम्बर संघ में आचार्य एवं उपाध्याय पदों का ही उल्लेख मिलता है। वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा में गणधर एवं गणावच्छेदक पद को छोड़कर शेष की परम्परा यथावत देखी जाती है । पन्यास, पण्डित आदि अतिरिक्त पदों का समावेश वर्तमान परम्परा में हो गया है।
साध्वी समुदाय में पूर्वकाल से प्रवर्त्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका, महत्तरा, गणिनी, गणावच्छेदिनी, प्रतिहारी आदि पदों का उल्लेख