Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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70...शोध प्रबन्ध सार का निर्देश है। इसी कारण जैन मुनि की भिक्षाचर्या अनेकविध नियमों से प्रतिबद्ध है। आगम एवं आगमेतर साहित्य में इसकी विशद चर्चा प्राप्त होती है। उसी का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन इस छठे अध्याय में किया गया है।
सप्तम अध्याय उपसंहार रूप में वर्णित है। इसमें भिक्षाचर्या एवं सातों अध्याय का सारभूत स्वरूप वर्णित किया है।
इस कृति का मुख्य ध्येय भिक्षाचर्या के विविध घटकों से जन सामान्य को परिचित करवाना है। आज की मोर्डन युवा पीढ़ी इन सभी तथ्यों से दूर होती जा रही है। मुनि कौन होते हैं? उनके आचार नियम क्या है? संयम जीवन आज क्यों उपादेय एवं महत्त्वपूर्ण है? आदि सारभूत पक्षों की ही उन्हें जानकारी नहीं है। इस ज्ञान अभाव में जैन धर्म का विकास एवं विस्तार एक प्रश्न चिह्न है? इसके माध्यम से आम जनता जैन प्रणाली के सूक्ष्म तथ्यों से परिचित हो सकेगा।
खण्ड-7 पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
भारतीय संस्कृति मूलत: व्यक्तिमूलक संस्कृति है। इसमें प्रत्येक आत्मा की व्यक्तिगत स्वतंत्रता स्वीकार की गई है। व्यक्ति स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है। जैन सिद्धान्तों के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है, अस्तित्व है। वह अपनी ही शक्ति द्वारा स्वयं संचालित होती है। उसकी व्यवस्था अपने आप में निहित है। तभी प्रत्येक आत्मा स्वयं परमात्मा है।
स्वतंत्रता का यथार्थ मूल्यांकन धार्मिक जगत में ही संभव है क्योंकि धर्म आराधना सदा स्वेच्छापूर्वक ही होती है। मन की स्वतंत्रता अर्थात बाहरी औपचारिक बन्धनों से मुक्ति किन्तु नैसर्गिक या प्राकृतिक मर्यादाओं का स्वीकार। कानून बाहरी बंधन है। धार्मिक नियम कानून नहीं है, कारण कि वे बलपूर्वक या जबरदस्ती किसी पर लादे नहीं जा सकते। धर्म आराधक स्वयं उन्हें अंगीकार करता है।
इस भारत देश में गणतन्त्र एवं जनतन्त्र की व्यवस्था है। विवक्षा भेद से वह बन्धन रूप है। अनेक शासकों द्वारा संचालित राज्य व्यवस्था गणतंत्र कही