Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...69 प्रतिभासित होता है। प्रस्तुत अध्याय में भिक्षाचर्या नियामकता को दर्शाने हेतु भिक्षाचर्या योग्य मुनि के लक्षण, शुद्ध पिण्ड का अधिकारी कौन? आहार ग्रहण का परिमाण, अवशिष्ट आहार की व्यवस्था विधि, आहार दान का अधिकारी कौन? आहार दान सम्बन्धी सावधानियाँ, भिक्षाचर्या सम्बन्धी मर्यादाएँ, भिक्षाचर्या से सम्बन्धित आवश्यक नियम, भिक्षाचार्य के निषिद्ध-अनिषिद्ध स्थान, दिगम्बर मनि किन स्थितियों में आहार ग्रहण करें? आधुनिक युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं अनौचित्य आदि विविध विषयों पर विचार किया है।
जैन मुनि की भिक्षाचर्या अति सूक्ष्म गवेषणात्मक प्रक्रिया है। मुनि को किस प्रकार, कैसा आहार ग्रहण करना चाहिए और किसका त्याग करना चाहिए? आदि अनेक प्रकार का वर्णन जैन साहित्य में प्राप्त होता है। जैन ग्रन्थों में मुनि के आहार सम्बन्धी 42 दोष बताए गए हैं। चतुर्थ अध्याय में आहार सम्बन्धी इन्हीं 42 दोषों के मुख्य प्रकार, भिक्षाचर्या सम्बन्धी अन्य दोष, आहार शुद्धि के अभाव में लगने वाले दोष, आहार ग्रहण एवं विसर्जन के प्रयोजन आदि विषयक चर्चा की है।
पंचम अध्याय भिक्षाचर्या की विधि एवं उपविधियों से सन्दर्भित है। आहार शरीर की मूलभूत आवश्यकता है।
तीन प्रकार के आहार में से कोई न कोई आहार जीव प्रति समय ग्रहण करता है। साधु संत भी निर्विघ्न साधना हेतु आहार की गवेषणा करते हैं।
साधु कैसा आहार ग्रहण करे? आहार प्राप्ति के लिए किस प्रकार गमन करे? किस विधिपूर्वक आहार प्राप्त करे? आहार ग्रहण करते समय लगे दोषों की आलोचना किस विधि से करे? आदि विषय उल्लेखनीय हैं। प्रस्तुत अध्याय में इन्हीं भिक्षा विधियों का निरुपण किया गया है। भिक्षागमन करने के पूर्व से लेकर आहार ग्रहण, अधिक आहार का परिष्ठापन, पात्र धोवन आदि विषयक जितनी भी विधियाँ है उन सभी का यहाँ विस्तृत विवेचन किया है। ___षष्ठम अध्याय में भिक्षा चर्या का ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अनुसंधान करते हुए आद्योपरान्त वर्णन किया है।
पूर्वकाल से ही प्राज्ञ पुरुषों ने आहारशुद्धि को प्राथमिकता दी है। श्रमण परम्परा में जैन मुनि के लिए आहार शुद्धि अत्यावश्यक मानी गई है। अत: उनके लिए शुद्ध, सात्विक, निर्दोष एवं प्रासुक भिक्षा की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने