Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...23
ओर प्रेरित करने वाले व्रतों की चर्चा की गई है। जिससे गृहस्थ साधक अविरति से देशविरति एवं देशविरति से सर्वविरति के पथ पर अग्रसर हो सके।
खण्ड-1
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का
बृहद इतिहास
विधि-विधान मानव जीवन का अमूल्य अंग है। जीव की प्रत्येक क्रिया एवं प्रतिक्रिया किसी न किसी विधि पर आधारित होती है । जीव के गर्भ में आने से लेकर उसके देह नाश रूप अग्नि संस्कार की क्रिया तक प्रत्येक विधान की एक विधि है। प्रकृति का संचालन भी अपने विधि-नियमों के आधार पर होता है । छोटे से छोटा कार्य भी अपनी विधि पूर्वक करने पर ही पूर्णता को प्राप्त करता है। चाय बनाने जैसी सामान्य क्रिया हो अथवा मोबाईल और मिसाईल निर्माण की आधुनिक कठिन क्रिया । सभी की एक विधि है । उस विधि में थोड़ा सा हेरफेर या चूक हो जाये तो बिल्कुल विपरीत परिणाम आता है। यही बात अध्यात्म के क्षेत्र में भी घटित होती है। धर्म मार्ग पर गति करने से पूर्व कुछ नियम मर्यादाओं का पालन एवं धार्मिक क्रिया-कलापों को पूर्ण करने के लिए निर्दिष्ट विधियों का आचरण आवश्यक होता है।
यदि जैन विधि-विधानों के उद्भव के विषय में चर्चा की जाए तो आगमयुग से ही कई विधानों के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं । मध्ययुग में इस विषयक विशेष प्रगति देखी जाती है क्योंकि अनेक विधि-विधानमूलक ग्रन्थों की रचना एवं नूतन विधि-विधानों का सर्जन इस समय में हुआ। चैत्यवास परम्परा के आधिपत्य के कारण एक तरफ जहाँ चारित्रिक ह्रास हुआ वहीं दूसरी तरफ चैत्यवासी आचार्यों द्वारा साहित्य के क्षेत्र में अनुपम योगदान भी मिला । तत्कालीन शिथिलाचार के प्रभाव से कुछ अनावश्यक विधानों का समावेश उन्होंने अपनी सुविधा हेतु भी किया। इस तरह मध्ययुग जैन विधि-विधानों के लिए उत्कर्ष का युग रहा।
श्री हरिभद्रसूरि आदि जैनाचार्यों ने आगमों में संक्षिप्त रूप से प्राप्त विधिविधानों का विस्तृत प्रतिपादन कर उनमें समयानुसार परिवर्तन एवं परिवर्धन भी