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शोध प्रबन्ध सार ...65
यापन भिक्षाचर्या के माध्यम से ही क्यों करते हैं? उनमें भी जैन मुनि की भिक्षाचर्या विधि अनेक नियम मर्यादाओं से युक्त है, ऐसा क्यों ?
इसके समाधान में जैनाचार्य कहते हैं कि सर्वप्रथम तो संत जीवन का आदर्श साधना पर अवलम्बित है न कि दैहिक स्तर पर। मुनि जीवन एक निरपेक्ष एवं स्वावलंबी जीवन होता है क्योंकि स्वावलंबी व्यक्ति ही साधना की चरम स्थिति को स्पर्श कर सकता है। जैन मुनि के लिए जिस प्रकार की भिक्षाचर्या आगम शास्त्रों में निर्दिष्ट है वह उसके निरपेक्ष जीवन में सहायक बनता है। भिक्षाचर्या के कारण गृहस्थ वर्ग में भी मुनि जीवन के दायित्वों के प्रति जागृति बनी रहती है।
भिक्षाविधि का अनुसरण करने से आहार के प्रति आसक्ति का बंधन नहीं होता। आहार विजय का अभ्यास होता है एवं समत्ववृत्ति का बीजारोपण होता है। स्वादिष्ट एवं मनोनुकूल आहार की प्रवृत्ति पर अंकुश लग जाता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि साधु को रूखा-सूखा जैसा भी भोजन मिले उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। उसके मन में मात्र निर्दोष एवं सात्त्विक आहार के प्राप्ति की अभिलाषा होनी चाहिए। यदि वह स्वादिष्ट आहार खा ले और रूखा-सूखा त्यक्त कर दे तो निशीथसूत्र के अनुसार उस मुनि को दण्ड का विधान है।
जैन श्रमण की आहार ग्रहण विधि- जैन श्रमण अहिंसा का मूर्तिमान आदर्श होता है। संसार के समस्त जीवों के लिए वह हितकर एवं क्षेमंकर होता है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद वह त्रियोग एवं त्रिकरण पूर्वक समस्त जीवों की हिंसा का त्याग करता है। इस प्रतिज्ञा का यावज्जीवन परिपालन करते हुए अनवरत मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त रहता है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अहिंसा प्रधान पंचयाम का आराधक मुनि इस देह यात्रा का निर्वहन किस तरह करता है? क्योंकि जब तक शरीर है तब तक उसका संपोषण आवश्यक है। श्रमण पाप क्रिया, क्रय-विक्रय का भी परित्यागी होता है। वह समस्त सावद्य वृत्तियों का भी त्यागी होता है। अपने उद्देश्य से निर्मित आहार आदि को भी ग्रहण नहीं करता फिर वह अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह किस प्रकार करें यह एक विराट प्रश्न है।
जैनाचार्यों ने इसका समाधान देते हुए कहा है कि जिस प्रकार भ्रमर फूलों