Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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24...शोध प्रबन्ध सार
fabeti It was an Golden Era for Jain scriptures sanitaart is कई आचार्यों एवं मुनि भगवन्तों ने इस संबंध में कार्य किए है अत: विधिविधान सम्बन्धी मौलिक साहित्य हमें उपलब्ध हो जाता है। इस तरह आगमयुग से अब तक जैन विधि-विधानों के संदर्भ में सहस्राधिक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। कुछ ग्रन्थ किसी विशिष्ट विषय का प्रतिपादन करते हैं तो कुछ ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न विषयों का एक साथ प्रतिपादन मिलता है।
जैन वाङ्गमय में विधि-विधानों का स्वरूप- जैन धर्म का विधिविधान सम्बन्धी इतिहास साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत मौलिक है। गृहस्थ एवं साधु दोनों ही वर्गों से सम्बन्धित कई विधि-विधान मूल रूप में भी देखने को मिलते हैं।
___ यदि प्राचीनतम आगमों का अध्ययन करें तो विधि-विधानों का प्रारंभिक स्वतंत्र उल्लेख आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौवें अध्ययन में मिलता है। यहाँ पर भगवान महावीर की ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख है। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी मुनि जीवन सम्बन्धी विधिविधानों का निर्देश है। उत्तराध्ययन एवं अन्तकृतदशा में विविध तप विधियों का निरुपण है।
गृहस्थ उपासना का मुख्य वर्णन उपासकदशांगसूत्र में प्राप्त होता है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथासूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र, कल्पसूत्र आदि आगम शास्त्र भी गृहस्थ वर्ग के विधि-विधानों का वर्णन करते हैं।
वस्तुतः आगम साहित्य में समायोजित छेद सूत्र विधि-विधानों के संदर्भ में आधारभूत ग्रंथ हैं। नियुक्ति साहित्य में भी विधि-विधानों का विस्तृत उल्लेख है। मध्यकाल में इस विषय पर व्यापक कार्य हुआ। श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य हरिभद्रसूरि, पादलिप्तसूरि, जिनप्रभसूरि, वर्धमानसूरि, जिनवल्लभ गणि आदि अनेक विद्वद मुनियों ने एवं दिगम्बर परम्परा के आचार्य वट्टेकर, वसुनन्दी, आशाधर, सिंहनन्दी आदि धुरन्धर आचार्यों ने विधि-विधान के संदर्भ में ऐतिहासिक कार्य किया। इसी के साथ जैन अवधारणा में कौन-कौन से विधिविधान किस स्वरूप में एवं किन परम्पराओं से आकर जुड़े? उनमें किस क्रम से परिवर्तन आए? परिवर्तन का मुख्य आधार क्या रहा? इन विषयों पर शोधपरक वर्णन भी इन साहित्यिक रचनाओं में सहज रूप से प्राप्त हो जाता है।