Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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46... शोध प्रबन्ध सार
प्रकार एवं स्वरूप का तात्त्विक वर्णन किया गया है। तदनु प्रतिमा धारण के विविध पक्षों पर विमर्श करते हुए उसके सारभूत तथ्य एवं प्रतिमा धारण की विधि का निरूपण किया है।
प्रतिमा आराधना एक क्रमिक साधना है। इससे आचार पक्ष को सुसंस्कृत कर विशिष्ट रूप से आत्म साधना में अग्रसर हो सकते हैं।
इस प्रकार सात अध्यायों में निबद्ध इस शोध खण्ड के लेखन का मुख्य ध्येय व्रत साधना में हमारी दृष्टि को परिष्कृत करना और अन्तःकरण में साधना प्रकाशको अनुभूत करना है। व्रतारोपण का मुख्य प्रयोजन अज्ञान और अविवेक का निराकरण है।
व्रत साधना एक प्रकार का व्यायाम है। इसके प्रयोग से आत्मबल और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन किया जा सकता है। मानवता से महानता की ओर अपने कदमों को अग्रसर किया जा सकता है । यह कृति अपने ध्येय में सफल बने तथा सुषुप्त युवा पीढ़ी एवं जैन समाज को आचरण में दृढ़ करते उसे विश्व प्रेरणा बनाएं यही अन्तरेच्छा है ।
गृहस्थ वर्ग के योग्य आवश्यक प्रतिपद्य व्रतों में जिसके दृढ़ता आ जाती है वही सर्वविरति के मार्ग पर सुप्रवृत्त हो सकता है। गृहस्थ जीवन में व्रत साधना मुनि जीवन की पाठशाला के समान होती है। इस प्रथम भाग में वर्णित खण्डों का ध्येय सत्त्वशाली श्रावक वर्ग का निर्माण करना एवं साधक वर्ग को साधना के शिखर पर आरूढ़ करना है। जैन विधि-विधानों की इस शोध यात्रा को चार पड़ावों में पूर्ण किया है। प्रथम पड़ाव श्रावकाचार से सम्बन्धित है जिसका संक्षिप्त एवं सारभूत वर्णन समाप्ति की ओर है। इस शोध यात्रा का दूसरा पड़ाव श्रमणाचार से सम्बन्धित है। इसमें श्रमण जीवन से सम्बन्धित विविध क्रियाओं का विश्लेषण किया है। श्रमण जीवन भारतीय संस्कृति का मात्र गौरव ही नहीं अपितु हृदय भी है। जब तक भारत की भूमि पर साधु-सन्तों का अस्तित्व है तब तक ही भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक रस जीवंत रह सकता है। अध्यात्म ही इस संस्कृति का मूल आधार है।