Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...49
खण्ड
-4
जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
नव्य युग के संदर्भ में
श्रमण संस्कृति मूलत: आध्यात्मिक एवं त्याग प्रधान संस्कृति है। अध्यात्म के धरातल पर ही जीवन का चरम विकास एवं सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति संभव है। मनुष्य अपने जीवन में कई लक्ष्य बनाता है एवं उन्हें प्राप्त भी करता है परंतु मानव जीवन का परम लक्ष्य अविनाशी शाश्वत सुख की प्राप्ति है। संस्कारी जीव असली सुख की पहचान नहीं कर पाता और भौतिकता के मार्ग पर आरूढ़ रहता है जबकि वैराग्यवान व्यक्ति संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर निःश्रेयस (शाश्वत सुख) प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर रहता है।
निःश्रेयस की प्राप्ति रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर ही संभव है। यह मार्ग व्यक्ति या सम्पत्ति प्रधान नहीं होकर चारित्र प्रधान होता है। प्रश्न हो सकता है कि मोक्ष संप्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग का ही विधान क्यों? वस्तुत: इस विधान के उत्स में पूर्ववर्ती आचार्यों एवं मनीषियों की मनोवैज्ञानिक सोच समझ में आ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं- ज्ञान, भाव
और संकल्प। इन तीनों के परिष्कार के लिए त्रिविध साधना मार्गों का विधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक बनाने के लिए सम्यकदर्शन या श्रद्धा की साधना का विधान है वहीं ज्ञानात्मक पक्ष के लिए सम्यग्ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष के लिए सम्यक चारित्र का विधान है। इस प्रकार यह एक गूढ़ मनोवैज्ञानिक मार्ग है।
यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो अन्य दर्शनों में भी आध्यात्मिक विकास हेतु त्रिविध साधना का मार्ग मिलता है। बौद्ध दर्शन में शील, समाधि
और प्रज्ञा के रूप में, गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग के रूप में इसी मार्ग को पुष्ट किया गया है। पाश्चात्य संस्कृति में भी नैतिक बनने हेतु तीन आदेश उपलब्ध होते हैं- 1. स्वयं को जानो 2. स्वयं को स्वीकार करो और 3. स्वयं ही बन जाओ। यह सिद्धान्त भी त्रिविध साधना मार्ग के समकक्ष है। आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्म स्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म निर्माण में चारित्र का तत्त्व समाविष्ट ही है।