Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार
पूजा विधान, अनुष्ठान और अध्यात्म मूलक साधनाएँ प्रत्येक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान इनका शरीर है तो अध्यात्म साधना इनका प्राण। भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही दोनों प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती है। दोनों ही धर्म साधनाओं का मुख्य आधार है विधिविधान। किसी भी कार्य की सफलता का मूल आधार उसकी सम्पादन की विधि होती है।
"विधिपूर्वमेव विहितं कार्य सर्वं फलान्वितं भवति।" अर्थात कोई भी कार्य जब विधि पूर्वक किया जाता है तब ही वह सफल बनता है। विधि का अर्थ है कार्य करने का तरीका। वह कार्य चाहे व्यापार सम्बन्धी हो, व्यवहार सम्बन्धी हो या अध्यात्म सम्बन्धी, उसे पद्धति पूर्वक सम्पन्न करना अत्यंत आवश्यक होता है क्योंकि तभी वह कार्य शुभ परिणामों में हेतुभूत बन सकता है। ___ व्यावहारिक जीवन में आचारगत व्यवस्था की अहम भूमिका है। भारतीय सभ्यता में आचारपक्ष का वर्गीकरण विभिन्न सिद्धान्तों, दृष्टियों और मर्यादाओं के अनुसार किया गया है। उसी आचार व्यवस्था के आधार पर विविध धर्म संप्रदायों एवं नैतिक मूल्यों का गठन हुआ है। अतएव सभी धर्मों का केन्द्र बिन्दु यही आचारगत नैतिक व्यवस्था मानी जाती है। यही मानव धर्म का नियामक तत्त्व है। देश-काल के अनुसार इन व्यवस्थाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी होता रहा है।
. भारतीय संस्कृति की प्रायः सभी परम्पराओं में विधि-विधानों का अस्तित्व देखा जाता है। किसी परम्परा में मौलिक विधि-विधान कम हो सकते हैं तो किसी में अधिक, परंतु सभी के अपने रीति-रिवाज और अपनी स्वतंत्र परम्परा है। जंगल में रहने वाले आदिवासी लोगों की भी अपनी सभ्यता एवं नियममर्यादाएँ होती है। मानव एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और समुदाय में रहने के लिए कोई न कोई व्यवस्था होना आवश्यक है। वस्तुतः विधि-विधान समाज में नियामक मर्यादाओं का कार्य करते हैं।