Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ... 3
एवं सुनियंत्रित होता है। श्रावक-श्राविकाओं को व्रत, नियम आदि के पालन में व्यक्तिगत स्वतंत्रताएँ होती है। वे अपनी रुचि, शक्ति, परिस्थिति आदि के अनुसार यथायोग्य धार्मिक क्रिया करते हैं एवं सामाजिक मर्यादा अनुसार व्यवहारिक प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं। इसी के विपरीत श्रमण वर्ग सांसारिक क्रियाकलापों से सर्वथा मुक्त रहते हुए संयम, तप, त्याग की आराधना के माध्यम से अध्यात्म मार्ग पर गतिशील रहते हैं। श्रमण जीवन स्वार्थ एवं परार्थ कल्याण का मार्ग है। श्रमण आत्म विद्या की उपलब्धि करते हुए गृहस्थ वर्ग को आध्यात्मिक मार्ग का पाथेय प्रदान करते हैं। जिससे गृहस्थों द्वारा इस मार्ग पर चलते हुए कुछ विशिष्ट प्रकार की आचार व्यवस्था या विधि व्यवस्था का अनुपालन किया जाता हैं। जैन एवं बौद्ध दोनों संप्रदायों में गृहस्थ और मुनि की आचार संहिता का निरूपण हुआ है। यद्यपि अधिकांश विधि सम्बन्धी नियमों एवं उपनियमों का निर्माण प्रमुख रूप से भिक्षु भिक्षुणियों के लिए देखा जाता है।
जैन एवं बौद्ध धर्म की आचार व्यवस्था का मुख्य आधार भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध के उपदेश रहे हैं। इनमें से कई नियमों का निर्धारण तीर्थंकरों के द्वारा किया गया तो कई नियम - उपनियम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी एवं गीतार्थ आचार्यों द्वारा बनाए गए। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को दृष्टि में रखते हुए मूल नियमों के अनुकूल एवं अविरोधी नियम-उपनियम भी बनाए गए। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार जो नियम संयम साधना में वृद्धि करे एवं असंयम की प्रवृत्तियों का विरोध करे वह सभी विधि के रूप में ग्राह्य हैं।
जैन एवं बौद्ध परम्परा निवृत्तिमार्गी होने के साथ-साथ मूल रूप में आचार प्रधान हैं। परन्तु दोनों पद्धतियों की आचार व्यवस्था में अंतर भी है । निवृत्तिमार्गी परम्परा का मुख्य लक्ष्य योगों से विरक्ति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति है। इसी कारण यहाँ ज्ञान एवं वैराग्य की साधना को प्रमुखता दी गई है।
निवृत्तिमार्गी परम्परा के प्रारंभ काल में कर्मकाण्ड का कोई स्थान नहीं था । परन्तु क्रमशः वैदिक परम्परा एवं लौकिक रीति-रिवाजों के प्रभाव से इनमें भी कर्मकाण्ड का प्रवेश होने लगा। वर्तमान में श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्ध धर्म और जैन धर्म का ही अस्तित्व प्राप्त होता है। दोनों का जन्म एवं विकास तो इसी भारत की भूमि पर हुआ परंतु बौद्ध धर्म आज दूर - सुदूर विदेशों में जाकर भी फैल गया है। जैन धर्म बौद्ध धर्म के जितना व्यापक स्वरूप नहीं