Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...7 विधानों की आवश्यकता क्यों है? आदि-आदि। इन्हीं प्रश्नों ने सत्रह वर्ष पूर्व विधि-विधान सम्बन्धी अमूल्य ग्रन्थ विधिमार्गप्रपा के अनुवाद एवं शोध हेतु मुझे प्रेरित किया।
विधिमार्गप्रपा के गहन अध्ययन ने मन में उठ रहे कुछ प्रश्नों का समाधान किया तो कई नए प्रश्नों को जन्म भी दिया। रहस्यों पर से परतें हट रही थी या बढ़ रही थी यह समझ में नहीं आ रहा था। जितना भीतर जाने का प्रयास किया जा रहा था रहस्य उतने ही गहरे होते जा रहे थे। अंततोगत्वा विधि विधान सम्बन्धी प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थों का परिशीलन किया। जिसके माध्यम से कई ऐसे रहस्य प्रकट हुए जिन्हें जन सामान्य में लाना आवश्यक प्रतीत हुआ। विभ्रान्त मान्यता एवं भ्रमित अवस्था का सटीक समाधान भी इसी के द्वारा संभव था। परंतु साधु जीवन की सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ बिना किसी बंधन के इस कार्य को पूर्ण करने में वर्षों व्यतीत हो जाते अत: मेरी ज्येष्ठ गुरुभगिनी परम पूज्या प्रियदर्शना श्रीजी म.सा. एवं जैन साहित्य मनीषी डॉ. सागरमलजी जैन ने D.lit. शोध के रूप में इस कार्य को सम्पन्न करने का सुझाव दिया और कहा इससे इसकी प्रामाणिकता एवं विश्वग्राह्यता बढ़ेगी। डिग्री लेने का कोई महत्त्व या ध्येय तो कभी भी नहीं था मात्र इस सन्दर्भित ग्रन्थों का सर्वांगीण एवं समीक्षात्मक अध्ययन करना था जो शोध के माध्यम से ही संभव लग रहा था।
यहाँ उल्लेखनीय है कि इस शोध कार्य को अपेक्षाकृत और अधिक विस्तार दिया जा सकता था किन्तु विश्वविद्यालय की समय सीमा के बंधन के कारण यह कार्य सीमित अवधि में पूर्ण किया जा रहा है। विधि-विधानों की आवश्यकता क्यों?
मानव एक सामाजिक प्राणी है। समूह में रहते हुए प्रत्येक कार्य के लिए कुछ नियम एवं मर्यादाएँ होना आवश्यक है। सामाजिक गतिविधियों को कुछ सीमाओं में बांधना आवश्यक होता है। इसी कारण जीवन की हर क्रिया से कुछ मर्यादाएँ जुड़ी हुई है। विधि अर्थात किसी भी कार्य को सम्पन्न करने की सम्यक रीति। कार्य सिद्धि के लिए उचित विधि का सम्पादन आवश्यक होता है तभी वह अथ से इति तक पहुँचती है। जैन परम्परा में विधि-विधान या अनुष्ठान का अर्थ क्रिया, आचरण या सम्यक प्रवृत्ति किया जाता है। यह ध्यातव्य है कि यहाँ पर मात्र क्रिया का कोई महत्त्व नहीं है। ज्ञान पूर्वक की गई प्रवृत्ति ही फलदायी