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(१०) अतएव तीर्थ वही कहा जासकता और वही तीर्थवन्दना होसकती हे, जिसकी निकटता में पापमल दूर होकर अन्तरंग शुद्ध हो। जिन मार्ग में वही तीर्थ है और वही तीर्थवंदना है, जिसके दर्शन और पूजन करने से पवित्र उत्तम क्षमादि धर्म, विशुद्ध सम्यग्दर्शन, निर्मल संयम और यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जहाँ से मनुष्य शान्तिभाव का पाठ उत्तम रीति से ग्रहण कर सकता है, वह ही तीर्थ है। जैनमत के माननीय तीर्थ उन महापुरुषों के पतित पावन स्मारक हैं जिन्होंने आत्मशुद्धि की पूर्णता प्राप्त की है । लौकिक शुद्धि विशेष कार्यकारी नहीं है। साबुन लगाकर मल मल कर नहाने से शरीर भले ही शुद्ध-सा दीखने लगे, परन्तु लोकोत्तर शुचिता उससे प्राप्त नहीं हो सकती। लोकोत्तर शुचिता तब ही प्राप्त होसकती है जब अन्तरङ्ग से क्रोधादि कषाय-मैल धो दिया जाय । इसको धोने के लिये सत्सङ्गति उपादेय है । सम्यग-दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यकचारित्र-रूप रत्नत्रय धर्म की आराधना ही लोकोत्तर शुचिता की आधार शिला है। इस रत्नत्रय-धर्म के धारक साधुजनों के आधाररूप निर्वाण आदि तीर्थस्थान हैं। वह तीर्थ ही इस कारण लोकोत्तर शुचित्व के योग्य उपाय हैं, प्रबल निमित्त हैं। । इसी
1-'तत्रात्मनो विशुद्ध ध्यान जल प्रक्षालित कर्ममलकलंकस्य
स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तर शुचित्वं तत्साधनानि सम्यग्दर्शन
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