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( ६३ ) समाधिमरण किया था। वहीं रह कर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने, जो दि० मुनि होकर उनके साथ आये थे, उनकी वैयावत्ति की थी। सम्राट चन्द्रगुप्त की स्मृति में यहां जिन मन्दिर और चित्रावली बनी हुई है। उनके अनुयायी मुनिजनों का एक 'गण' भी बहुत दिनों तक यहां विद्यमान रहा था । निस्सन्देह श्रवणवेल्गोल महापवित्र तपोभूमि है। यहां की जैनाचार्य-परम्परा दिग्दिगान्तरों में प्रख्यात थी—यहां के आचार्यों ने बड़े २ राजा महाराजाओं से सम्मान प्राप्त किया था। उन्हें जैन धर्म की दीक्षा दी थी। श्रवणवेल्गोल पर राजा महाराजा, रानी, राजकुमार, बड़े २ सेनापति, राजमन्त्री और सब ही वर्ग के मनुष्यों ने आकर धर्माराधना की है। उन्होंने अपने आत्मबल को प्रगट करने के लिये यहां सल्लेखनाब्रत धारण किया-भद्रबाहु स्वामी के स्थापित किये हुये आदर्श को जैनियों ने खूब निभाया ! श्रवणवेल्गोल इस बात का प्रत्यक्ष साक्षी है कि जैनियों का साम्राज्य देश के लिये कितना हितकर था
और उनके सम्राट किस तरह धर्म साम्राज्य स्थापित करने के लिये लालायित थे। श्रवणवेल्गोल का महत्व प्रत्येक जैनी को आत्म वीरता का सदेश देने में गर्भित है। यहां लगभग ५०० शिलालेख जैनियों का पूर्व गौरव प्रगट करते हैं ।*
श्रवणवेल्गोल गांव के दोनों ओर दो मनोहर पर्वत (१)
*श्री माणिकचन्द्र प्रन्थमाला का "जैन शिलालेख संग्रह" ग्रंथ देखो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com