Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad Publishing House

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Page 147
________________ ( १४० ) साधन मात्र है। इस प्रकार के विवेकभाव को रखनेवाला यात्री ही सच्ची तीर्थयात्रा करने में कृतकार्य होता है । उसे तीर्थयात्रा करने में आरम्भ से निवृति मिलती है और धन खर्च करते हुये उसे आनन्द आता है, क्योंकि वह जानता है कि मेरी गाढ़ी कमाई अब सफल हो रही है। संघ के प्रति वह वात्सल्य भाव पालता है और जीर्ण चैत्यादि के उद्धार से वह तीर्थ की उन्नति करता है । इस पुण्य प्रवृत्ति से वह अपनी आत्मा को ऊंचा उठाता है और सद्व्रतियों को प्राप्त होता है । मध्यकाल में जब आने जाने के साधनों की सुविधा नहीं थी और भारत में सुव्यवस्थिति राजशासन क़ायम नहीं था, तब तीर्थयात्रा करना अत्यन्त कठिन था । किन्तु भावुक धर्मात्मा सज्जन उस समय भी बड़े २ संघ निकाल कर तीर्थयात्रा करना सबके लिये सुलभकर देते थे । इन संघों में बहुत-सा रुपया खर्च होता था और समय भी अधिक लगता था । इसलिये यह संघ वर्षों बाद कहीं निकलते थे । इस असुविधा और अव्यवस्था का ही यह परिणाम है कि आज कई प्राचीन तीर्थों का पता भी नहीं है । और तीर्थों की बात जाने दीजिये, केवल शासनदेव तीर्थंकर महावीर के जन्म-तप और ज्ञान कल्याणक स्थानों को लेलीजिये । कहीं भी उनका पता नहीं है-जन्मस्थान कु ंडलपुर बताते हैं जरूर; परन्तु शास्त्रों के अनुसार वह कुंडलपुर राजगृह से दूर और वैशाली के निकट था । इसलिये वह वैशाली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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