________________
( १३६ )
उपसंहार "श्री तीर्थपान्थरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु विभमणतो न भवे भमन्ति । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः,
पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥" तीर्थ की पवित्रता महान् है । आचार्य कहते हैं कि श्री तीर्थ के मार्ग की रज को पाकर मनुष्य रजरहित अर्थात् कर्म-मल रहित हो जाता है। तीर्थ में भ्रमण करने से वह भव भ्रमण नहीं करता है। तीर्थ के लिये धन खर्च करने से स्थिर सम्पदा प्राप्त होती है। और जगदीश जिनेन्द्र की पूजा करने से वह यात्री जगतपूज्य होता है। तीर्थ यात्रा का यह मीठा फल है । इसकी उपलब्धिका कारण तीर्थ-प्रभाव है। तीर्थ बन्दना में विवेकी हमेशा वताचार का ध्यान रखता है । यदि सम्भव हुआ तो वह एक दफा ही भोजन करता है, भूमि पर सोता है, पैदल यात्रा करता है, सर्व सचित्तका त्याग करता है और ब्रह्मचर्य पालता है। जिन मूर्तियों की शान्त और वीतराग मुद्रा का दर्शन करके अपने सम्यक्त्व को निर्मल करता है । क्योंकि वह विवेकी जानता है कि वस्तुतः प्रशमरूप को प्राप्त हुआ आत्मा ही मुख्य तीर्थ है। वाह्यतीर्थ-वन्दना उस अभ्यन्तर तीर्थ-आत्मा की उपलब्धिका
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com