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कुमार चक्री की परीक्षा के लिये देवों का आना, भरत बाहुबलि के तीन युद्ध, शुभचन्द्र का शिला को स्वर्णमय बनाना, समन्तभद्र का स्वयंभ स्तोत्र के उच्चारण से पिण्डी के फटने से चन्द्रप्रभु की प्रतिमा का प्रकट होना, गजकुमार मुनि को अग्नि का उपसर्ग सुदर्शन सेठ के शील के प्रभाव से शली का सिंहासन होना, रावण का कैलाश को उठाना, सुकुमालजी का वैराग्य और उपसर्ग सहन, सीताजी का अग्निकुंड में प्रवेश, भद्रबाहु स्वामी से चन्द्रगुप्त का फल पूछना, नेमिस्वामी और कृष्ण की बल परीक्षा, रात्रि भोजन त्याग की महिमा, अकलंक देव का बौद्धाचार्य से वाद आदि २
बीच की वेदी में सबसे उपर इन्द्र बाजा मदङ्गा आदि लिए हुए हैं। इस तरह चारों ओर मन्दिर का नकशा चित्रकला में है।
पहिले इस मन्दिर में एक यही वेदी थी फिर एक पृथक वेदी उस प्रतिविम्ब ससूह के विराजमान करने के वास्ते बनवाई गई। जिनकी रक्षा सन् १८५७ के बलवे के समय में अपने जी जान से जैनियों ने की थी। उसके बहुत वर्ष पीछे दो स्वर्गीय आत्माओं की स्मति में उनके प्रदान किये रुपये से दोनों दालानों में वेदियां बनाई गई । इन वेदियों में नीलम, मरगज की मूत्तियें तथा पाषाण की प्राचीन संवत् १११२ की प्रतिमायें हैं एक छत्र स्फटिक बना हुआ है।
बाहर के एक दालान में दैनिक शास्त्र सभा होती है, यहाँ की शास्त्र सभा दूर २ मशहूर है । दशलाक्षणी में प्रायः बाहर के
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