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आते हैं । स्टेशन से आने पर लगभग १०-१२ मील दूरसे ही इस दिव्य-मूर्ति के दर्शन होते हैं । दृष्टि पड़ते ही यात्री अपूर्वशान्ति अनुभव करता है और अपना जीवन सफल हुआ मानता है । हम रात्रि में श्रवणवेल्गोल पहुँचे थे; परन्तु वह महामस्तकाभिषे. कोत्सव का सुअवसर था । इसलिये बिजली की रोशनी का प्रबंध था। सर्चलाइट की साफ रोशनी में गोम्मट-भगवान्के दर्शन करते नयनतृप्त नहीं होते थे । उनकी पवित्र स्मृति आज भी हृदय को प्रफुल्लित और शरीर को रोमांचित कर देती है-भावविशुद्धि की एक लहर ही दौड़ जाती हैं । धन्य है वह व्यक्ति जो श्रवणवेल्गोल के दर्शन करता है और धन्य है वह महाभाग चामुडराय जिन्होंने यह प्रतिमा निर्माण कराई।
दि० जैन साधुओं को 'श्रमण' कहते हैं । कनड़ी में 'बेल' का अर्थ 'श्वेत' है और 'कोल' तालाव को कहते हैं । इसलिये श्रवणवेल्गोल का अर्थ होता हैः श्रमणअर्थात् दि० जैनसाधुओं का श्वेतसरोवर ! निस्सन्देह यह स्थान अत्यन्त प्राचीन काल से दि०
जैन साधुओं की तपोभूमि रही है । राम-रावण काल के बने हुये जिनमंदिर यहां पर एक समय मौजूद थे । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी बारह वर्ष के दुष्काल से जैनसंघ की रक्षा करने के लिये दक्षिण भारत को आये थे और इस स्थान पर उन्होंने संघ सहित तपश्चरण किया था। श्रवणवेल्गोल के चंद्रगिरि पर्वत पर 'भद्रबाहुगुफा' में उनके चरणचिन्ह विद्यमान हैं। वहीं उन्होंने
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