Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad Publishing House

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Page 111
________________ ( १०४ ) धरणेन्द्र- पद्मावती होंगे । यह मूर्तियां प्राचीनकाल की हैं। यहां से थोड़ी दूर आगे चढ़ने पर - सोरठ महल पहुँचने से पहले ही मार्ग से ज़रा हटकर एक चरणपट्ट मिलता है । इस पट्टमें एक चरण पादुकायें बनीं हैं, जिनके ऊपर सीधे हाथ को एक छोटे चरणचिन्ह बने हैं । उनके बराबर एक लेख है जो घिसजानेकी वजहसे पढ़ने में नहीं आता है । इन स्थानोंकी अब कोई वंदना नहीं करता । किन्तु इनकी रक्षा करना आवश्यक है । सोरठ - महल से जैनमंदिर प्रारम्भ हो जाते हैं। इन सब पर प्रायः श्वे० जैनियोंका अधिकार है । श्रीकुमारपाल - तेजपाल आदि के बनवाये हुये मंदिर अवश्य दर्शनीय हैं - उनका शिल्पकार्य अनूठा है। इन मंदिरों में एक प्राचीन मंदिर 'प्रेनिट' (Granite ) पाषाण का है, जिसकी मरम्मत सं० ११३२ में सेठ मानसिंह भोजराज ने कराई थी और जिसे मूल में कर्नल टॉड सा० दिगम्बर जैनियों का बताने हैं। यहीं श्री नेमिनाथ मंदिर के दलान में वर्जेस सा० ने एक चरणपादुका स० १६१२ की भ० हर्षकीर्तिकी देखी थीं । मूलसंघ के इन भट्टारक म० ने तब यहां की यात्रा की थी । मूलतः यह मंदिर दि० जैन ही होगा । यहां से आगे एक कोट में दो मन्दिर बड़े रमणीक और विशाल दिगम्बर जैनों के हैं इनमें एक प्रतापगढ़ निवासी श्री बंडीलाल जी का सं० १६१५ का बनवाया हुआ है । दूसरा लगभग इसी समय का शोलापुर वालों का है । इसके अतिरिक्त एक छोटा-सा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com "

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