Book Title: Jain Tirth aur Unki Yatra
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad Publishing House

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Page 137
________________ ( १३० ) सं० १६५७ का बना हुआ है इस स्थान का जीर्णोद्धार महाराजा छत्रसाल जी के समय में व्र० नेमिसागर जी के प्रयत्न से हुआ था यह बात सं० १७५७ के शिलालेख से स्पष्ट है । इस शिलालेख में महाराज छत्रसाल को 'जिनधर्ममहिमायां रतिभूतचेयसः' व 'देवगुरूशास्त्रपजनतत्परः' लिखा है, जिससे उनका जैनधर्मके प्रति सौहार्द्र प्रगट होता है। इस क्षेत्र के विषयमें यह किम्बदन्ती प्रसिद्ध है कि श्री महेन्द्रकीर्तिजी भट्टारक घूमते हुए इम पर्वत की ओर निकल आये। वह पटेराग्राम में ठहरे, परन्तु उन्हें जिनदर्शन नहीं हुए - इसीलिये वह निराहार रहे। रातको स्वप्न में उन्हें कुण्डलपुर पर्वत के मंदिरों का परिचय प्राप्त हुआ। प्रातः एक भील के सहयोग से उन्होंने इन प्राचीन मंदिरोंका पता लगाया और दर्शन करके अपने भाग्य को सराहा एवं इस तीर्थको प्रसिद्ध किया। इसका सम्पर्क भ० महावीर से प्रतीत होता है। सभव है कि भ० महावीर का समवशरण यहां आया हो । कहते हैं कि जब महमूद गजनी मंदिर और मूर्तियों को तोड़ता हुआ यहां आया और महावीरजी की मूर्तिपर प्रहार किया तो उसमें से दुग्ध-धारा निकलती देखकर चकित हो रह गया। कहते हैं कि महाराज छत्रसालने भी इस मन्दिर और मूर्तिके दर्शन करके जैनधर्म में श्रद्धा प्रगट की थी। उन्होंने इस क्षेत्र का जीर्णोद्धार कराया। उनके चढाये हुये बरतन वगैरह आज भी मौजद बताये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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