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जिन मन्दिर हैं । यहां से मैदान में चलना पड़ता है। पहाड़ का उतराव चड़ाव वेणर में खतम हो जाता है । चन्दन-वादाम सुपारी-नारियल आदि के पेड़ों से भरे हुए जंगल बहुत मिलते हैं; यहाँ जैन धर्मशाला सुन्दर बनी हुई है। उसमें ठहरना चाहिये प्राचीन होयसल काल में मूड़बद्री जैनियों का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के चौटर वंशी राजा जैन धर्म के अनन्य भक्त थे। बड़े २ धनवान जैन व्यापारी यहां रहते थे। राजा और प्रजा सब ही जैन धर्म के उपासक थे। सन् १४४२ ई० में ईरान के व्यापारी अब्दुल रज्जाक ने मूड़बद्री के चन्द्रनाथ स्वामी के मन्दिर को देख कर लिखा था कि 'दुनियां में उसकी शान का दूसरा मन्दिर नहीं है।' (""has not its equal in the universe ) उसने मन्दिर को पीतल का ढला हुआ और प्रतिमा सोने की बनी बतायी थी। आज भी कुछ लोग प्रतिमा को सुवर्ण की बतलाते हैं, परन्तु वास्तव में वह पाँच धातुओं की है, जिसमें सोने और चान्दी का अंश अधिक है। यह प्रतिमा अत्यन्त मनोहर लगभग ५ गज ऊँची है। यह मन्दिर सन् १४२६-३० में लगभग ८-९ करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया था। इस मन्दिर को ठीक ही 'त्रिभुवन-तिलक-चूड़ामणि' कहते हैं । यहां यही सब से अच्छा मन्दिर है। वह चार खनों में बटा हुआ है। दूसरे खन में 'सहस्त्रकूट चैत्यालय' है। उसमें १००८ सांचे में ढली हुई प्रतिमायें अतीव मनोहर हैं । इस मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ १८-१६ मन्दिर और हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com