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की साह जीवराजजी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा प्राचीन है। अब शेष मूर्तियां अर्वाचीन हैं । मूलनायक श्री नेमिनाथजी की कृष्ण पाषाण की प्रतिमा सं० २६४७ में पिपलिया निवासी श्री पन्नालाल जी टोंग्या ने प्रतिष्ठित कराई थी । प्रतापगढ़ के श्री बंडीलाल जी के वंशज एक कमेटी द्वारा इस तीर्थराजका प्रबन्ध करते हैं। यह धर्मशाला व कोठी श्री बंडीलालजी के प्रयत्न के फल हैं । धर्मशाला से पर्वत की चढ़ाई का दरवाजा १०० कदम है। वहां पर शिलालेख है, जिससे प्रगट है कि दीवान बेहचरदास के उद्योग से १|| लाख रुपयों की लागत द्वारा काले पत्थर की मजबूत सीढ़ियां गिरिनार की चारों टोकोंपर लगवाई गई हैं । यहीं से चढ़ाई शुरू होती है।
गिरिनार महान सिद्धक्षेत्र है । बाईसवें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथजी का मोक्षस्थान यही है । यहीं पर भगवान ने तप किया था -- केवल ज्ञान प्राप्त किया था और धर्मोपदेश दिया था । राजमती जी ने यहीं से सहस्राम्रवन में आकर उनसे घर चलने की प्रार्थना की थी । जब भगवान के गाढ़े वैराग्य के रंग में उनका मन भी रंग गया तो वह भी आर्यिका हो यहीं तप तपने लगीं थीं। श्री नारायण कृष्ण और वलभद्र ने यहीं आकर तीर्थकर भगवान की वन्दना की थी। भगवान के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर यहीं पर श्री कृष्णजी के पुत्र प्रद्य ुम्न - शंत्रुकुमार आदि दि० मुनि हुये थे और कर्मों को विध्वंश कर सिद्ध परमात्मा
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