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"एक बार वंदे जो कोई । ताहि नरक पशुगति नहीं होई॥"
इस गिरिराज की वंदना करने से परिणामों में निर्मलता होती है, जिससे कर्मबंध कम होता है-आत्मा में वह पुनीत संस्कार अत्यन्त प्रभावशाली होजाता है कि जिससे पापपंकज में वह गहरा फंसता ही नहीं है । दिनोंदिन परिणामों की विशुद्धि होने से 'एक दिन वह प्रबल पौरुष प्रगट होता है, जो उसे आत्मस्वातंत्र्य अर्थात् मुक्ति नसीब कराता है ! सम्मेदाचलकी वंदना करते समय इस धर्म सिद्धान्त का ध्यान रक्खें और बीस तीर्थङ्करों के जीवन चरित्र और गणों में अपना मन लगाये रक्खें !
इस सिद्धाचल पर देवेन्द्र ने आकर जिनेन्द्र भगवान की निर्वाणभमियां चिन्हित करदी थीं-उन स्थानों पर सुन्दर शिखिरे चरणचिन्हसहित निर्माण की गई थी । कहते हैं कि सम्राट् श्रेणिक के समय में वे अतीव जीर्णशीर्ण अवस्था में थी; यह देखकर उन्होंने स्वयं उनका जीर्णोद्धार कराया और भव्य टोंके निर्माण करादी । कालदोष से वे भी नष्ट होगई; जिस पर अनेक भव्य दानवीरों ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग उनके जीर्णोद्धार में लगाकर किया । सं० १६१६ में यहाँ पर दि० जैनियों का एक महान् जिनबिम्व प्रतिष्ठोत्सव हुआ था । पहले पालगंज के राजा इस तीर्थ की देखभाल रखते थे। उपरान्त दि० जैनों का यहाँ जोर हुआ-किन्तु मुसलमानों के आक्रमण में
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