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महावीर का धर्मचक्र प्रवर्तन मुख्यतया इसी पवित्र स्थान से हुआ था-यहीं पर अनादिमिथ्यादृष्टियों के पापमल को धोकर जिनेन्द्रवीर ने उन्हें अपने शासन का अनुयायी बनाया था । श्रेणिक-सा शिकारी राजा और कालसौकरि-पुत्र जैसा कसाई का लड़का भगवान की शरण में आये थे और जैन धर्म के अनन्य उपासक हुये थे। उनका आदर्श यही कहता है कि जैनधर्म का प्रचार दुनियां के कोने-कोने में हर जाति और मनुष्य में करो ! किन्तु राजगह भ० महावीर से पहले ही जैन धर्म के संसर्ग में आचुका था । इक्कीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथजी का जन्म यहीं हुआ था यहीं उन्होंने तप किया था और नीलवनके चंपकवृक्ष के तले वह केवलज्ञानी हुये थे । मुनिराज धनदत्तादि यहाँ से मुक्त हुये और महावीर के कई गणधर भ० भी इस स्थान से मोक्ष गये थे । अन्तिमकेवली जम्बकुमार भी यहीं से मुक्त हुये थे यही वह पवित्रस्थान है जहाँ से इस युग में सर्व अन्तिम सिद्धत्व प्राप्त किया गया। तीर्थरूप में राजगृह की प्रसिद्धि भ० महावीरें सें पहली की है सोपारा (सूरत के निकट) से एक आर्यिका संघ यहाँकी बन्दना करने ईसाकी प्रारंभिक अथवा पूर्वीय शताब्दियों में
आया था । धीवरी पृतिगंधा भी उस संघ में थी। वहें क्षुल्लिका हो गई थी और यहीं नीलगुफामें उन्होंने समाधिमरण किया था निस्सन्देह यह स्थान पतितोद्धारक है और बहुत ही रमणीक है यहां कई कुडों में निर्मल जल भरा रहता है, जिनमें नहाकर पंच
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