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देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक-वैक्रिय-आहारक-तैजस-कार्मण शरीर, औदारिक-वैक्रिय-आहारक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन, समचतुरस्र संस्थान, शुभ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श, शुभ विहायोगति, देव-मनुष्य आनुपूर्वी, अगुरुलघु, निर्माण, आतप, उद्योत, पराघात, श्वासोच्छ्वास, तीर्थंकर, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ. सुभग, स्थिर, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति ये सैंतीस प्रकृतियाँ अघाती कर्मों की है।
स्थितिबंध- पुण्य की ४२ प्रकृतियों में से तीन आयु को छोड़कर शेष समस्त प्रकृतियों का स्थितिबंध कषाय से होता है । कषाय जितना अधिक होता है उतना ही इनका स्थिति बंध अधिक होता है। परन्तु ये प्रकृतियाँ अघाती होने से इनका स्थिति बंध जीव के लिए कुछ भी हानिकारक नहीं है।
अनुभागबंध-कर्म-सिद्धान्त में बताया गया है कि पाप का अनुभाग कषाय से होता है, परन्तु पुण्य का अनुभाग कषाय से नहीं होकर कषाय में कमी होने से, कषाय के घटने से होता है। जितना-जितना कषाय घटता जाता है और आत्मा पवित्र होती जाती है उतना-उतना पुण्य का अनुभाग या रस बढ़ता जाता है। फलदान शक्ति रस रूप होने से पुण्य का अनुभाग ही पुण्य का सूचक है। अतः जहाँ भी पुण्य का विवेचन किया जाता है वहाँ पुण्य के अनुभाग और रस को ही ग्रहण किया जाता है, स्थिति को नहीं।
प्रदेश बंध- पुण्य प्रकृतियों के दलिकों का बंधना पुण्य कर्म का प्रदेश बंध है। प्रदेश बंध न्यूनाधिक होने से इनके अनुभाग में कोई अंतर नहीं पड़ता है अर्थात् अनुभाग न्यूनाधिक नहीं होता है। अतः कर्मों का प्रदेश बंध के न्यूनाधिक होने का कोई महत्त्व नहीं है। पुण्य की आवश्यकता
साधक के लिए पुण्य आवश्यक है। जो पुण्य नहीं करता है वह धर्म नहीं कर सकता, क्योंकि आत्मा पुण्य से ही पवित्र होती है अथवा आत्मा का पवित्र होना ही पुण्य है तथा पुण्य के फल से पंचेन्द्रिय जाति, मानव भव, मन, बुद्धि आदि मिलते हैं, त्याग का बल मिलता है, जिसके बिना कोई भी जीव मुक्ति नहीं पा सकता, क्योंकि इनके बिना वह साधना नहीं कर सकता। जैसा कि कहा है
इह जीविएराय! असासयाम्मि, घणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। से सोयइ मच्चु-मुहोवणीए, धम्मं अकाउण परंमि (सि) लोए।
- उत्तराध्ययन सूत्र अ. १३ गाथा २१
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जैनतत्त्व सार