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अठारह दोष-क्षय - ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अज्ञान दोष का क्षय एवं दर्शनावरण कर्म के क्षय से दर्शन दोष का क्षय होता है। मोहनीय कर्म के क्षय से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, कामविकार ये ग्यारह दोष क्षय होते हैं। अन्तराय कर्म के क्षय से दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपयोगान्तराय एवं वीर्यान्तराय इन पाँच दोषों का क्षय होता है। नव उपलब्धियाँ
उपलब्धि उसे कहा जाता है जिस पर हमारा स्वतन्त्र व पूर्ण अधिकार हो अर्थात् जिसे अन्य कोई भी बाधा न पहुँचा सके, छीन न सके। जो वस्तु हमारे न चाहने पर भी हम से छीन ली जाय या नाश हो जाय, अन्त को प्राप्त हो जाय, जिस पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं हो, उसे उपलब्धि नहीं कहा जा सकता।
उपर्युक्त दृष्टि से विचार करें तो धन-सम्पत्ति, भूमि-भवन आदि वस्तुओं पर हमारा अधिकार है ही नहीं, क्योंकि इन्हें राज्य छीन सकता है, चोर चुरा सकता है। ये व्यापार की हानि में या कर्जे में जा सकती हैं, आग से, बाढ़ से, भूकम्प से, तूफान से, युद्ध से क्षण-भर में नष्ट हो सकती हैं। इनका किसी-न-किसी दिन अन्त अवश्यम्भावी है। ये अन्तरहित 'अनन्त' नहीं हैं। अतः इन पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि जिस शरीर के अस्तित्व से हम जीवित हैं, उस पर भी हमारा अधिकार नहीं है। यदि इस पर हमारा अधिकार होता तो हम इसमें रोग न होने देते, काले बाल सफेद न होने देते, कान, आँख की शक्ति क्षीण न होने देते, मल-मूत्र, श्लेष्म-स्वेद जैसी गन्दी वस्तुएँ पैदा न होने देते, बुढ़ापा व मृत्यु को न आने देते। परन्तु ये सब हमारे न चाहने व रोकने का लाख प्रयत्न करने पर भी आ ही जाते हैं। तात्पर्य यह है कि हमारा शरीर पर वास्तविक अधिकार नहीं है, माना हुआ अधिकार है।
जिस पर हमारा वास्तविक अधिकार नहीं है, वह वास्तविक उपलब्धि नहीं है, उपलब्धि का आभास मात्र है। वास्तविक उपलब्धि तो वह है जो एक बार प्राप्त हो जाने पर सदा के लिए उपलब्ध हो जाये। जो फिर कभी अनुपलब्धि में न बदले, अर्थात् जिसका फिर कभी विनाश या अन्त (अभाव) न हो। ऐसी उपलब्धि परिवर्तनशील, क्षणिक, अनित्य, नश्वर, पौद्गलिक पदार्थों से तो सम्भव नहीं है। कारण कि ये पदार्थ अनित्य, नश्वर, अन्तयुक्त व अभाव रूप होने से मूल्यहीन व
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जैनतत्त्व सार