Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 276
________________ मानवमात्र विषय-कषाय एवं राग-द्वेष की निवृत्ति में समर्थ है और स्वाधीन है, कारण कि इनकी उत्पत्ति अविवेक से होती है। अविवेक विवेक के आदर से मिटता है, किसी प्रवृत्ति से नहीं। प्रवृत्ति के लिये पर की आवश्यकता होती है, पदार्थ पर किसी का भी स्वतन्त्र अधिकार नहीं हैं। भोग के लिये प्रवृत्ति की और योग (मुक्ति) के लिए निवृत्ति की, त्याग की आवश्यकता होती है। प्रवृत्ति की पूर्ति पराश्रित है, पराश्रय पराधीनता है, विवशता है, मुक्ति की प्राप्ति निवृत्ति से होती है, उसके लिये पर के आश्रय की आवश्यकता नहीं होती है। आवश्यकता होती है पर के आश्रय के त्याग की। प्राणी अपने से भिन्न वस्तु को ग्रहण करने में पराधीन है, अतः असमर्थ है, ग्रहण करने के पश्चात् भी वस्तु का उससे आत्मसात् नहीं होता है। उसमें और वस्तु में भिन्नता बनी ही रहती है। जहाँ भिन्नता है, वहाँ परायापन है, जहाँ परायापन है वहाँ पराधीनता है। अतः प्रवृत्ति में आदि से अन्त तक, प्रवृत्ति के मूल से लेकर अन्त तक पराधीनता है। जहाँ पराधीनता है वहाँ असमर्थता है, वीर्यान्तराय का उदय है। जिसने इस तथ्य को समझ लिया है कि करने के अनुष्ठान के परिणाम में जो मिलता है वह रहता ही नहीं है अर्थात् करने का परिणाम शून्य है। इस तथ्य को समझ कर वह करने का त्याग कर निवृत्ति को या विश्राम को संवर-संयम-त्याग को अपनाता है तो असमर्थता से मुक्ति पा लेता है। मुक्ति धर्म से मिलती है, धर्म त्याग में है, दोषों की निवृत्ति में है। त्याग करने में कोई असमर्थ तथा पराधीन नहीं है। इसे एक उदाहरण से समझें- किसी व्यक्ति को दस ग्राम वजन का कागज का टुकड़ा उठाना है तो उसे उठाने के लिए हाथ में सामर्थ्य चाहिये। रोग या किसी कारण से यदि शक्ति नहीं है तो नहीं उठा सकता है, परन्तु हाथ में कुछ वजन या कागज का टुकड़ा है, उसे त्यागना है तो त्यागने के लिये किसी भी अंश में शक्ति या सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत वस्तु का ग्रहण करने में जो शक्ति व्यय हो रही है, उस शक्ति का व्यय रुक जायेगा। तब शक्ति का संचय बढेगा। इसी प्रकार हमें पाँच नये पैसे या एक छोटा सा धागा भी चाहिये तो इन्हें प्राप्त करने के लिए पराश्रय लेना ही पड़ेगा, पराधीन होना ही पड़ेगा। जो प्राणी अपने भोग की कामना की पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करता है उसकी शक्ति क्षीण होती है अर्थात् उसके सामर्थ्य का ह्रास होता है। अंत में वह थक जाता है। थक जाने का मतलब ही असमर्थ होना है, वीर्यान्तराय का उदय होना है। मोक्ष तत्त्व [255]

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