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असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं।- उत्तरा. अ. ३१.२
एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे अर्थात् असंयम से निवृत्ति करे तथा एक ओर प्रवृत्ति करे अर्थात् संयम में प्रवृत्ति करे।
रागदोसे य दो पावे, पाव-कम्म पवत्तणे। जे भिक्खू रुम्भइ णिच्चं, ते ण अच्छइ॥ - उत्तरा. अ. ३१ गा. ३
राग और द्वेष ये दोनों पापरूप हैं। जो साधक इन पाप कर्मों में प्रवृत्ति करने से अपनों को रोकता है, वह जन्म-मरण रूप संसार में भव भ्रमण नहीं करता है।
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं॥ - समणसुत्तं, २६३
अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहारचारित्र है, जो पाँच व्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति के रूप में जिनदेव द्वारा प्ररूपित है।
सक्किरियाविरहातो, इच्छितसंपावयं ण नाणं ति मग्गण्णू वाघ्चेट्ठो, वाताविहीणोध्धवा पोतो॥ - समणसुत्तं, २६५
(शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी) सक्रिया चारित्र से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार पुरुष इच्छित देश की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न न करे तो वह गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता।
सुबहु पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि॥ - समणसुत्तं, २६६
चारित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है, जैसे कि अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण॥ - समणसुत्तं, २६७
चारित्रसम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है।
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जैनतत्त्व सार