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अनुभव होता है, वह प्रशमसुख का ही द्योतक है। इसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति जब अहंकार पर विजय के चरण बढ़ाता हुआ विनय को जीवन में अपनाता है तो उसे जिस सुख का अनुभव होता है वह प्रशमसुख है। मायावी व्यक्ति जब अपने मायाचार को नियंत्रित कर दूसरों के साथ सरलता का व्यवहार करता है तो उसे जिस सुख का अनुभव होता है वह प्रशमसुख है । इसी प्रकार लोभ के जाल में फंसा व्यक्ति संतोष का सूत्र अपनाता है तो उसे जिस सुकून का अनुभव होता है वह प्रशमसुख है। इस तरह प्रशमसुख अपने मानसिक क्लेशों या आत्मिक विकारों पर नियंत्रण से प्राप्त होता है। इस प्रशमसुख का अनुभव करने के लिए धन की आवश्यकता नहीं होती । अमीर हो या गरीब, कोई भी व्यक्ति इस प्रशमसुख का अनुभव कर सकता है। ऐन्द्रियक सुख से अलग होने के कारण इसे आनन्द भी कह सकते हैं। यह शान्ति का सुख है ।
इसका तात्पर्य हुआ कि मनुष्य के दुःख का कारण बाह्य वस्तुओं का अभाव नहीं, अपितु उसके मानसिक क्लेश हैं। इन क्लेशों में सबसे बड़ा क्लेश अज्ञान या अविद्या है। अविद्या के कारण ही मनुष्य इन्द्रिय के विषय भोगों को ही सुख का केन्द्र मानता है । वह उससे ऊपर उठकर सत्य को देख ही नहीं पाता है । भोगों के सुख में बनी आसक्ति उसके दृष्टिकोण को मलिन बनाये रखती है । वह जिस दिन भोगों के सुख को पूर्ण न मानकर अपने भीतर विद्यमान विकारों को दुःख का कारण समझेगा, उस दिन उसके दृष्टिकोण की मलिनता का नाश होगा। वह फिर दूसरों को देखकर अंधकार के मार्ग पर नहीं चलेगा । उसके भीतर उसे उजाले का अनुभव होगा और उस प्रकाश से उसे अपना रास्ता दिखाई देने लगेगा। फिर वह अपने विवेक के प्रकाश में देखे हुए रास्ते पर अधिक आश्वस्त रहेगा। वह यदि उस रास्ते पर चलने हेतु दृढ़ रहेगा तो उसे अपने भीतर में विद्यमान दुःख के कारणों का उच्छेद होता हुआ दिखाई देगा । वह समझ सकेगा कि पहले वह जिन छोटे-छोटे तुच्छ कारणों से दु:खी हो जाता था, वह अब उन कारणों के होते हुए भी दुःखी नहीं होता, अपितु भीतरी आनन्द का अनुभव करता है।
वाचक उमास्वाति का कथन है
स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तं परोक्षमेव मोक्षसुखम् ।
प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ।
मोक्ष तत्त्व
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प्रशमरतिप्रकरण, 237
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