Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 288
________________ गुलाम होता है। यह गुलामी उसकी आत्मिक स्वतन्त्रता को बाधित करती है । जिस प्रकार मदिरापान का व्यसनी व्यक्ति मदिरा का गुलाम होता है, उसी प्रकार विषय वासनाओं से घिरा हुआ व्यक्ति भी पराधीनता की बेड़ी में जकड़ा रहता है। जितनाजितना व्यक्ति भोगेच्छाओं के दंश से ग्रस्त होता है, उतनी उतनी उसकी स्वतन्त्रता विलुप्त होती जाती है। वह चाहते हुए भी इच्छाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर पाता । यही उसकी विवशता या पराधीनता है। पराधीन व्यक्ति को मुक्त नहीं कहा जा सकता । पराधीनता स्थायी सुख का मार्ग नहीं है । इसलिए अपनी समझ को बदलने एवं उसे सम्यक् बनाने की आवश्यकता है । दृष्टि का सम्यक् बनना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है तथा दृष्टि के सम्यक् होते ही अज्ञान ज्ञान में परिणत हो जाता है। यही साधना का मूल है। इसी से मोक्षमार्ग का प्रारम्भ होता है। ज्ञान के सम्यक् होने पर जो भी क्रिया की जाती है, वह स्वतः सम्यक् होती है । यह सम्यक् क्रिया ही सम्यक् चारित्र कही जाती है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों के समन्वित रूप को मोक्षमार्ग कहा गया है । सम्यक् चारित्र के अन्तर्गत सम्यक्तप का भी समावेश हो जाता है । किन्तु आगमों में तप को पृथक् से भी निर्दिष्ट किया गया है, क्योंकि तप आत्म-शुद्धि में एवं संचित कर्ममल को दूर करने में सहायक है । जैनदर्शन में मोक्ष तभी सम्भव है जब मोह कर्म का पूर्ण क्षय हो जाए। मोह ही व्यक्ति की दृष्टि को मलिन तथा उसके आचरण को क्रोधादि विकारों से अशुद्ध बनाए रखता है। इसलिए जब दृष्टि सम्यक् हो जाती है तो दृष्टि सम्बन्धी मलिनता समाप्त हो जाती है। वह निर्मल बन जाती है। यही सम्यग्दर्शन है। क्रोध, अहंकार, माया, लोभ, काम, भय, शोक आदि विकारों का मोहकर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है । यह विकार मनुष्य को दुःखी बनाये रखते हैं । इनके कारण आचरण में अशुद्धता बनी रहती है। इनकी अशुद्धि दूर करने के लिए सम्यक्चारित्र का विधान है। अर्थात् सम्यक्चारित्र के द्वारा आचरण सम्बन्धी अशुद्धि को दूर किया जा सकता है। इस अशुद्धि को दूर करने में सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की भी भूमिका रहती है, क्योंकि सम्यक्चारित इनके बिना सम्भव नहीं है। मनुष्य की मान्यता या विचारधारा का उसके सम्पूर्ण जीवन पर गहरा प्रभाव होता है। वह अपने मान्यता के अनुसार ही जीवन जीता है। जिसने यह मान रखा है मोक्ष तत्त्व [267]

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