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कि मैं संसार के समस्त भोगों की सामग्री जुटाकर सुखी हो सकता हूँ तो वह उसी के अनुरूप प्रयत्नशील रहता है। भले ही फल में उसे दुःख ही क्यों न भोगना पड़े । ऐसी मान्यता लक्ष्य की प्राप्ति के अनुरूप नहीं होने से मिथ्या कहलाती है। इस मिथ्या मान्यता का नाश होने पर विचारधारा सम्यक् बनाती है । सम्यक् विचारधारा वाला व्यक्ति ही प्रशमसुख एवं मोक्षसुख की ओर कदम बढ़ाता है।
मोक्ष को जैनदर्शन में परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का जब पूर्णत: क्षय हो जाता है तो वह मोक्ष है। क्योंकि इन आठ कर्मों के कारण मनुष्य संसार में अटका रहता है, पूर्णतः मुक्त नहीं होता । इन आठ कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार कर्म मुक्ति में विशेष बाधक हैं। आत्मगुणों को हानि पहुँचाने के कारण इन्हें घाती कर्म कहा गया है। इन घाती कर्मों का क्षय होने पर मोहकर्मजन्य दुःखों से छुटकारा मिल जाता है । अत: यह जीवन में मोक्ष का अनुभव है। आठ कर्मों में से शेष वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म जब तक क्षय नहीं होते तब तक शरीर का साथ बना रहता है । किन्तु जीव तब भी अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त वीर्य आदि गुणों से सम्पन्न होता है।
मोक्ष से कई लोग भय खाते हैं, क्योंकि मोक्ष होने पर इस जीवन में प्राप्त सुखों से वंचित होने की आशंका रहती है। किन्तु जैनधर्म के अनुसार अष्टकर्मों के क्षयरूप मोक्ष के प्राप्त हो जाने पर भी जीव या आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। वह आत्मा पूर्ण विकसित एवं निर्मल आत्मा होती है। वह परमात्मस्वरूप होती है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त वीर्य आदि गुण होते हैं। वहाँ दुःख एवं विकार का लेश भी नहीं होता। पूर्ण आनन्द एवं अव्याबाध सुख की अनुभूति मोक्ष का स्वरूप है । वहाँ अज्ञान या अविद्या रंचमात्र भी नहीं होती ।
यह पुस्तक अनेक गूढ़ रहस्यों को प्रकट करती है तथा मानव के मनोविज्ञान को समझकर लिखी गई है। पुस्तक में आध्यात्मिक उन्नति एवं दुःख - मुक्ति का मार्ग 'अनुभव और तर्क दोनों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। आगमिक मान्यताओं को दृष्टि में रखकर अनेक सुग्राह्य समाधान प्रस्तुत किये गये हैं । जैन सिद्धान्तों के ज्ञाता विद्वानों को भी इस पुस्तक में नवीनता का दर्शन होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं । उदाहरण के लिए सम्यग्दर्शन का दर्शनोपयोग के साथ लेखक ने घनिष्ठ सम्बन्ध निरूपित किया है। दर्शनोपयोग निर्विकल्पक होता है तथा सम्यग्दर्शन में
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जैतत्त्व सार