Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 291
________________ समस्त कमों का क्षय तभी सम्भव है जब नूतन कमों का आस्रव एवं बन्ध न हो तथा पूर्वबद्ध कर्म निर्जरित हो जाएं। सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप इसमें सहायक हैं। सम्यक्चारित्र से आस्रव के निरोधरूप संवर होता है एवं सम्यक्तप से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। समस्त साधना संवर एवं निर्जरा की साधना है। इसके लिए पाप प्रवृत्तियों को रोकना होता है एवं आत्मविशुद्धि की ओर बढ़ना होता है। यह विशुद्धि की ओर बढ़ना पुण्यतत्त्व का स्वरूप है, जो संवर एवं निर्जरा में भी सहायक होता है। पंच महाव्रतों, पाँच समितियों एवं तीन गुप्तियों की साधना प्रमुखतः संवर की साधना है एवं तप की साधना प्रमुखतः कर्मनिर्जरा की साधना है। निर्जरा के लिए अनशन आदि छह बाह्य तथा प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तर तपों का विधान है। इन तपों का सूक्ष्म एवं साधनापरक नवीन विवेचन किया है। पूर्वबद्ध कर्मों के उन्मूलन एवं आत्यन्तिक क्षय में आभ्यन्तर तप महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने आभ्यन्तर तप में स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग का पृथक् अध्यायों में विशेष विवेचन किया है। देह को मैं समझना जहाँ सब दोषों का मूल है, वहाँ उससे स्वयं को अतीत अनुभव करना दु:खों एवं दोषों के सर्वथा अन्त का उपाय है। लेखक ने सम्पूर्ण पुस्तक में अध्यात्म-साधना का निरूपण किया है तथा इसका निरूपण करते हुए जीव एवं अजीव तत्त्व के पारस्परिक भेद को लक्ष्य में रखा है। शुद्ध आत्मा अजीव पुद्गल के सम्बन्ध से रहित होती है तथा संसारी आत्मा अजीव पुद्गल के सम्बन्ध से युक्त होती है। पुद्गल एवं पौद्गलिक पदार्थों को लेखक ने परिवर्तनशील एवं नश्वर निरूपित किया है तथा आत्मा अथवा जीव को अविनाशी तत्त्व के रूप में प्रतिपादित किया है। यही आध्यात्म साधना का मूल रहा है। बाह्य पदार्थों की भाँति शरीर भी पुद्गलों से निर्मित है अतः उससे भी अपने को पृथक् समझने एवं अनुभव करने पर साधना सरल हो जाती है तथा आत्मा के जो गुण जड़ पदार्थ से सम्बन्ध के कारण आवरित अथवा बाधित हो रहे थे, वे जड़ से अपने को पृथक् अनुभव करने पर प्रकट हो जाते हैं। चेतना पर जड़ का प्रभाव पूर्णतः समाप्त हो जाना ही मुक्ति या मोक्ष है। इसे दु:खों से मुक्ति भी कह सकते हैं तथा समस्त अष्टविध कर्मों से मुक्ति भी कह सकते हैं। अष्टविध कमों में भी मोहकर्म प्रमुख है। जो साधक मोह को जीत लेता है, अर्थात् उसका क्षय कर देता है वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है। इसे असम्भव मानकर भविष्य के लिए टालना साधक के लिए उचित नहीं है। जो मोह एवं राग का त्याग का कर सकता है वह वीतरागता का अनुभव कर सकता है। वीतरागता ही [270] जैनतत्त्व सार

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