Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 281
________________ इस सुख में विघ्न व बाधा डालने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। स्वाधीनता ही मुक्ति है। अतः स्वाधीनता या मुक्ति का सुख अबाधित, अव्याबाध-अखण्ड होता है। यह अक्षय तो होता ही है, पूर्ण होने से अखण्ड भी होता है। अनन्त सुख कामना, ममता के त्यागने पर तादात्म्य या अहंभाव मिट जाता है जिसके मिटते ही रागरहित वीतराग अवस्था का अनुभव होता है। रागरहित होते ही अनन्त प्रेम का प्रादुर्भाव होता है, फिर प्रेम का रस सागर की लहरों की तरह लहराता है, सदैव उमड़ता रहता है। इस रस की न तो क्षति होती है, न निवृत्ति होती है, न पूर्ति होती है, न अपूर्ति होती है, न तृप्ति होती है, न अतृप्ति होती है। यह सुख क्षतिरहित होने से अक्षय, निवृत्ति नहीं होने से अव्याबाध, पूर्ति-अपूर्ति रहित होने से अखण्ड पूर्ण एवं तृप्ति-अतृप्ति रहित होने से अनन्त नित्यनूतन होता है। यह विलक्षण रस है अतः बुद्धि-गम्य नहीं होकर अनुभवगम्य है। अनन्त वैभव मैत्रीभाव या प्रेम की प्राप्ति वहीं होती है जहाँ स्वार्थपरता नहीं है। जहाँ स्वार्थपरता है वहाँ दृष्टि अपने ही सुख पर रहती है, भले ही इससे दूसरों का अहित हो या उन्हें दु:ख हो। इससे संघर्ष और सन्ताप उत्पन्न होता है। स्वार्थी व्यक्ति सिमट या सिकुड़ कर एक संकीर्ण से, छोटे से घेरे में आबद्ध हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता तिरोहित हो जाती है। उसके हृदय में क्रूरता, कठोरता व जड़ता आ जाती है। फिर वह हिंसक पशु से भी निम्न स्तर वाला दानव का जीवन जीने लगता है, पशु के समान इन्द्रिय भोग तो भोगने ही लगता है साथ ही अमानवीय अधम व्यवहार भी करने लगता है। इसके विपरीत जो प्राप्त सामग्री, योग्यता, बल का उपयोग उदारतापूर्वक दूसरों के हित में करता है, उसे इस सेवा से जो प्रसन्नता या सुख मिलता है, वह निराला ही होता है। यह सुख प्रतिक्षण क्षीण होने वाला नहीं होता है, अक्षुण्ण या अक्षय रस वाला होता है। यही कारण है कि जब-जब उसे पूर्वकृत सेवा की घटना की स्मृति आती है, हृदय प्रेम व प्रसन्नता से भर जाता है अर्थात् सेवा का सुख नित्य नूतन रहता है। कभी पुराना नहीं होता है जबकि स्वार्थी व भोगी व्यक्ति को जबजब पूर्व में भोगे भोग की घटना की स्मृति आती है तब-तब उसके हृदय से पुनः उस भोग को भोगने की कामना उत्पन्न होती है जिससे हृदय में अशान्ति व अभाव उत्पन्न हो जाता है, तात्पर्य यह है कि भोग के सुख का परिणाम शून्य व दुःख है तथा सेवा के सुख का परिणाम नित्य नूतन व अक्षय रस की उपलब्धि है। [260] जैनतत्त्व सार

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