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अर्थात् - वीतराग साधक एकान्त (दुःखसहित) सुख को प्राप्त करता है। यह ही तथ्य बौद्ध आगम धम्मपद में भी कहा है।
निव्वाणं परमं सुखं' (धम्मपद २०३-२०४) अर्थात् - निर्वाण में परम सुख है। परम सुख वह है जो क्षणिक नहीं हो, स्थायी रहे, जिस सुख में दुःख नहीं हो। यह सुख उसी को मिलता है जो इन्द्रिय भोगों के क्षणिक सुख के प्रलोभन के राग से मुक्त होता है। राग से मुक्त वह होता है जो ध्यान साधना से इन्द्रिय-विषय के सुख में दुःख का दर्शन करता है अर्थात् प्रज्ञावान है, स्थित प्रज्ञ है।
संसार में दुःख किसी भी प्राणी को पसंद नहीं है। सभी प्राणी सदा सुख चाहते हैं। सभी व्यक्ति दुःख से मुक्त होने एवं सुख पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति, परिश्रम, प्रयत्न का उद्देश्य भी यही है। आज तक प्रत्येक व्यक्ति ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न किया है। फलस्वरूप विषय भोग की सामग्री के संग्रह का ढेर लग गया परन्तु उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई। जैसे-जैसे सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया, साधन-सामग्री जुटायीसुविधा भी बढ़ी। परन्तु चित्त शान्त नहीं हुआ, अभाव व द्वन्द्व नहीं मिटा, सन्तुष्टि नहीं हुई, चिन्ता नहीं मिटी, प्रत्युत ये सब बढ़ते गये। अशान्ति, अभाव, चिन्ता, द्वन्द्व ये दु:ख के ही द्योतक हैं। कामनापूर्ति एवं सामग्री प्राप्ति से जो सुख मिलता प्रतीत हुआ, वह भी नहीं रहा। जबकि जिस सामग्री से, निमित्त से सुख मिला वह सामग्री व निमित्त ज्यों का त्यों मौजूद है। यदि सामग्री से एवं संग्रह से सुख मिलता तो सामग्री-संग्रह रहते सुख बना रहना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं होता। इससे यह फलित होता है कि सामग्री-संग्रह से सुख नहीं मिलता। तथा जो सुख मिलता प्रतीत होता है, वह भी नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि उस प्रतीत होने वाले सुख का भी अस्तित्व नहीं है। केवल आभास मात्र है। यहाँ ही यह जिज्ञासा होती है कि जीवन में सुख का अस्तित्व भी है या नहीं? इस पर विचार यह करना है कि सुख का स्वरूप क्या है? विचार करने से सुख दो प्रकार का ज्ञात होता है
१. दुःख निहित सुख (दुःख युक्त सुख) यह निकृष्ट एवं क्षणिक है और २. दुःख रहित सुख (दुःख मुक्त सुख), यह उत्कृष्ट-सर्वश्रेष्ठ, परम सुख है। यह परम सुख तभी मिलता है जब साधक के जीवन में दुःखयुक्त सुख की दासता एवं सुख का प्रलोभन कुछ भी शेष नहीं रहता है। सर्वांश में सुख की दासता एवं प्रलोभन का नाश होने पर अवर्णनीय परम सुख का स्वतः अनुभव हो जाता है।
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जैनतत्त्व सार