Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 277
________________ __ जो प्राणी जितना अधिक भोग में अनुरक्त है, भोग के अधीन है, वह उतना ही अधिक पराश्रित है, उतना ही अधिक निर्बल है, असमर्थ है। जो प्राणी भोग से जितना विरक्त है, वह प्राणी उतनी ही कम असमर्थता का अनुभव करता है। उसके उतना ही वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। जो साधक भोग का सर्वथा व पूर्ण त्याग कर वीतराग हो जाता है, अपने सुख के लिए संसार से कुछ भी नहीं चाहता वह पराश्रय से पूर्ण मुक्त हो जाता है। उसे लेशमात्र भी असमर्थता का अनुभव नहीं होता है। वह अनन्त सामर्थ्यवान हो जाता है। उसके वीर्यान्तराय का पूर्ण क्षय हो जाता है। भोग-प्रवृत्ति या परिग्रह के कारण उत्पन्न हुआ पराश्रय, असमर्थता या वीर्यान्तराय है। भोगेच्छा में हुई कमी वीर्यान्तराय के क्षयोपशम का कारण है। भोग, पराश्रय व परिग्रह का पूर्ण त्याग ही वीर्यान्तराय का क्षय है। जो अनन्त सामर्थ्य का, अन्नत वीर्य का द्योतक है। त्याग की अधिकता के कारण ही संयमी जीव के गृहस्थ से अधिक वीर्यान्तराय का क्षयोपशम है। त्याग की पूर्णता के कारण ही वीतराग केवली प्रभु के वीर्यान्तराय का क्षय है- अनन्तवीर्य व सामर्थ्य है। उन्हें अपने लिए कुछ भी करना शेष नहीं है, अतः उनके लेशमात्र भी अन्तराय कर्म का उदय नहीं है। असमर्थता व वीर्यान्तराय का उदय वहीं है जहाँ कर्ता भाव तथा भोक्ताभाव है। जहाँ कर्ताभाव या भोक्ताभाव नहीं है- ज्ञाता-द्रष्टाभाव है, वहाँ असमर्थता का व वीर्यान्तराय का क्षयोपशम या क्षय है। करना शेष न रहने से असमर्थता का अन्त हो जाता है और अनन्त सामर्थ्य की अभिव्यक्ति हो जाती है। करने' से मुक्ति वही पाता है जिसने विषय के सुख भोग का, राग का त्याग कर दिया हो। कारण कि जिसने विषय सुख का त्याग कर दिया उसे संसार से कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है। जिसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहता उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। जिसे भोगना, पाना, करना शेष नहीं रहता वही पूर्ण समर्थ है, वही अनन्त वीर्यवान् है। जिसने इस तथ्य को समझ लिया है कि कर्म-अनुष्ठान के परिणाम में जो मिलता है वह रहता ही नहीं है, अर्थात् करने का परिणाम शून्य है, वह करने का' त्याग कर निवृत्ति को या विश्राम को, संवर-संयम-त्याग को अपनाता है तो वह असमर्थता से मुक्ति पा लेता है। कारण कि विश्राम में अर्थात् संवर-संयम-त्यागनिवृत्ति में किसी अन्य 'पर' की अपेक्षा ही नहीं होती है। यह स्वयं करना' होता है। जिसे स्वयं करना है उसके करने में मानव मात्र स्वाधीन एवं समर्थ है। यही अनन्त वीर्य, अनन्त सामर्थ्य है। [256] जैनतत्त्व सार

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