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अर्थहीन हैं। हमें जो इनका मूल्य, महत्त्व या अर्थ प्रतीत हो रहा है वह इनसे सुख लेने के राग से हो रहा है । अन्यथा ये सब मूल्यहीन व अर्थहीन ही हैं। जिन्हें इनसे सुख नहीं चाहिए, उनके लिए अभी भी, यहीं पर ये पदार्थ मूल्यहीन व अर्थहीन ही हैं। जो मूल्यहीन व अर्थहीन हैं उनकी उपलब्धि कोई अर्थ नहीं रखती, वह अनुपलब्धि रूप ही है। उसे उपलब्धि नहीं कहा जा सकता।
अतः जो इस मिथ्या उपलब्धि के राग का त्याग कर वीतराग हो जाता है, उसे जो स्वतः सहज, स्वाभाविक उपलब्धि की अभिव्यक्ति होती है वह ही सदा रहने वाली, अन्तरहित, अनन्त व शाश्वत उपलब्धि है । वह ही वास्तविक उपलब्धि हैं। ये उपलब्धियाँ विनाशी, अन्तयुक्त पौद्गलिक पदार्थों पर निर्भर नहीं हैं। अविनाशी चेतन तत्त्व की अभिव्यक्तियाँ हैं; अतः अनन्त हैं । इन्हीं उपलब्धियों का महत्त्व है। वीतरागता से अभिव्यक्त होने वाली ऐसी ही उपलब्धियों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, यथा
'दाणे, लाभे, भोगे, परिभोगे, वीरिए य सम्मत्ते णव केवल-लद्धीओ दंसण - णाणं चरित्ते य ।' (धवला 1/1, 1, गाथा 58/64)
अर्थात् 1. दान, 2. लाभ, 3. भोग, 4. परिभोग, 5. वीर्य, 6. सम्यक्त्व, 7. दर्शन, 8. ज्ञान और 9. चारित्र - ये नौ 'केवल' लब्धियाँ हैं । इन्हें 'केवल' इसलिए कहा गया है कि ये लब्धियाँ 'केवल' शुद्ध हैं, निर्दोष हैं, पूर्ण हैं, अनन्त हैं। इनमें दोष लेशमात्र भी नहीं है ।
इनमें से सम्यक्त्व और चारित्र लब्धि मोह के क्षय से, दर्शन लब्धि दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से एवं ज्ञान की लब्धि ज्ञान के आवरण के क्षय से अभिव्यक्त होती है । उपर्युक्त नौ लब्धियों में से 1. दान, 2. लाभ, 3. भोग, 4. परिभोग और 5. वीर्य इन पाँच का सम्बन्ध अन्तराय कर्म के क्षय से है ।
क्षायिक सम्यक्त्व
वीतराग होना तभी सम्भव है जब भूलरूप मिथ्या मान्यताओं का अर्थात् मिथ्यात्व का पूर्ण रूप से नाश या क्षय हो जाता है । भूल या मिथ्यात्व का सम्बन्ध अपने 1. स्वरूप, 2. साधकत्व, 3. स्वभाव, 4. साधना और 5 साध्य-सिद्धि आदि के विषय में मिथ्या मान्यताओं से होता है, यथा 1. अपने को देह रूप मानना जीव को अजीव मानने रूप मिथ्या मान्यता है । 2. शरीर, धन-सम्पत्ति आदि जड़ पदार्थों की उपलब्धि को जीवन मानना अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है ।
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मोक्ष तत्त्व
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