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पर करना शेष नहीं रहता। भोगना, पाना व करना शेष न रहने पर जानना शेष नहीं रहता। कारण कि जिस गाँव जाना ही नहीं है उस गाँव का रास्ता जानना व्यर्थ है, निष्प्रयोजन है। आशय यह है कि वीतराग को कुछ जानना शेष नहीं रहता, उन्हें अशेष ज्ञान व पूर्ण ज्ञान होता है। यह पूर्ण ज्ञान अविनाशी होता है, अन्तरहित होता है, अनन्त ज्ञान होता है।
वीतराग का ज्ञान निजज्ञान होता है। सुना हुआ, पढ़ा हुआ, पराया ज्ञान नहीं होता अर्थात् स्वयंसिद्ध ज्ञान होता है। यह नियम है कि स्वयंसिद्ध ज्ञान या स्वयंसिद्धि रूप ज्ञान सार्वलौकिक व कालिक होता है। वह तीनों कालों में समान रूप से बराबर एक-सा रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता है। जैसे पराधीनता, मृत्यु, दुःख, रोग बुरे हैं तथा स्वाधीनता, अमरत्व, सुख, आरोग्य अच्छे हैं, अभीष्ट हैं, यह ज्ञान स्वयंसिद्ध होने से तीनों लोकों व तीनों कालों में समान रूप से रहता है, अर्थात् त्रिकालवर्ती तथा त्रिलोकवर्ती होता है। यह अपरिवर्तनशील व अनिवाशी होता है। इस ज्ञान के पूर्ण प्रकट हो जाने, पूर्ण प्रभावी हो जाने से जीवन में स्वाधीनता, अमरत्व, सुख व आरोग्य की उपलब्धि होती है। इस शुद्ध, पूर्ण व अनन्त ज्ञान की उपलब्धि 'वीतरागता' से ही होती है। यह ज्ञान पुरातन, अद्यतन, नूतन न होकर सनातन, शाश्वत होता है। अविनाशी होने से यह ज्ञान 'अनन्त ज्ञान' है। अनन्त चारित्र ___ 'चारित्र' चलने का, चरने का, आचरण का द्योतक है। चलना वही सार्थक है जो गन्तव्य स्थल, लक्ष्य की ओर बढ़ता हो। जिस चलने से लक्ष्य की ओर गति नहीं हो वह चलना चलना नहीं, भटकना है, भ्रमण है, भ्रम है। मानव का लक्ष्य एकान्त 'दुःखरहित सुख' की उपलब्धि करना है। एकान्त सुख की उपलब्धि उस सुख के त्याग से ही सम्भव है जिस सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ है। जिस सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ है वह सुख वस्तुतः सुख न होकर दुःख ही है। दुःख का कारण दोष है। अतः समस्त दोषों (पापों) के त्याग से ही, क्षय से ही एकान्त सुख की उपलब्धि सम्भव है।
जिसमें एकान्त सुख की उपलब्धि हो वही चारित्र है, अर्थात् दोषों का त्याग ही चारित्र है। दोषों का आंशिक त्याग आंशिक (देश) चारित्र है और दोषों का पूर्ण त्याग पूर्ण चारित्र है। पूर्ण चारित्र में ही समस्त दुःखों से निवृत्ति या मुक्ति है। कारण कि दुःख वहीं है जहाँ दोष है। जहाँ दोष है वहाँ राग है। जहाँ राग है वहाँ दोष है।
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जैनतत्त्व सार