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तात्पर्य यह निकला कि जो 1. विनाशी है, क्षणिक है, 2. जो सीमित है, 3. जो 'पर' पर निर्भर है-ये तीनों अवस्थाएँ अन्तराय रूप हैं तथा 1. जो अविनाशी है, शाश्वत है, ध्रुव है, 2. जो असीम है, पूर्ण है, 3. जो स्वयं से व्यक्त होती है वही अन्तराय से रहित है, अनन्त है। ऐसी लब्धि इच्छापूर्ति के सुख व वस्तु से कभी भी सम्भव नहीं है। इसे एक उदाहरण से समझें-हमें प्रतिदिन भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है और उसकी पूर्ति भोजन का सुख भोग कर करते हैं। वह भोजन का सुख खाते-खाते ही खत्म हो जाता है। जिस वस्तु का भोग कर लिया वह भी न रही, वह भी विनाशी है। अतः यह सुख व वस्तु, दोनों ही विनाशी, अन्त व अन्तरयुक्त हैं। एक बार भोजन करने के पश्चात् पुनः भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है और फिर भोजन के सुख का भोग करते हैं। इस प्रकार भोजन के सुख के बीच में अन्तराल पड़ता है। अतः यह सुख अन्त व अन्तरयुक्त होने से अन्तराय रूप ही है। द्वितीय, हमारी खाने की इच्छा तो हजारों प्रकार की या सब ही स्वादिष्ट वस्तुओं की रहती है, परन्तु पूर्ति तो कुछ सीमित वस्तुओं की ही सम्भव है, अत: यह सुख अपूर्ण व अभावयुक्त रहता ही है। तृतीय, जब तक इच्छा है और उसकी पूर्ति नहीं हुई है तब तक तो इष्ट वस्तु की उपलब्धि से दूरी, अभाव व अन्तर रूप अन्तराय है ही, परन्तु जब इष्ट वस्तु मिल जाने से इच्छापूर्ति हो जाती है तब भी इच्छा की तृप्ति नहीं होती। आगे फिर भोजन करके सुख पाने की इच्छा बराबर बनी रहती है। इस अतृप्त इच्छा का अन्त कभी नहीं होता है। अनन्त दान
जहाँ राग है, मोह है वहाँ मूर्छा है, ज़डता है। अतः जैसे-जैसे राग या मोह घटता जाता है वैसे-वैसे जड़ता घटती या मिटती जाती है, चिन्मयता बढ़ती जाती है। चिन्मयता बढ़ने से संवेदनशीलता बढ़ती जाती है। संवेदनशीलता बढ़ने से करुणा भाव बढ़ता है। करुणाभाव से सर्वहितकारी भावना जाग्रत होती है। करुणा भाव या सर्व-हितकारी भाव को जैनागम में 'दान' कहा गया है।
अथवा यों कहें कि जैसे-जैसे मोह घटता जाता है, आत्मा निर्मल होती जाती है। जैसे-जैसे आत्मा निर्मल होती जाती है वैसे-वैसे आत्मा का विकास होता जाता है। जैसे-जैसे आत्मा का विकास होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा के आत्मिक गुण
आत्मीयता का विकास होता जाता है। आत्मीय भाव को ही मैत्री भाव कहा जाता है। या यों कहें कि आत्मीय भाव ही मैत्री भाव के रूप में प्रकट होता है।
मोक्ष तत्त्व
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