Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

View full book text
Previous | Next

Page 267
________________ विनाशी से सम्बन्ध-विच्छेद करना ही बन्ध का विच्छेद करना है, बन्धन रहित होना है, बन्धन रहित होना ही मुक्ति है । विनाशी से सम्बन्ध तोड़ना ही त्याग, संयम या चारित्र है। त्याग, संयम, चारित्र का फल ही मुक्ति की उपलब्धि है। आशय यह है कि समत्व, त्याग व वीतरागता रूप चारित्र में ही अमरत्व, मुक्ति व एकान्त अनन्त सुख की उपलब्धि अन्तर्निहित है। अन्तरायकर्म का क्षय से प्राप्त लब्धियाँ वर्तमान काल में बहुत से विद्वान् सिद्ध भगवान में दान, लाभ आदि लब्धियाँ नहीं मानते हैं, परन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने धवला पुस्तक ७, गाथा ११, पृ. १४-१५ में सिद्धों में पाँच लब्धियाँ मानी हैं वीरियोवभोगे-भोगे दाणे लाभे जदुयदो विग्घं । पंचविहलद्धिजुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धो ॥ जिस अन्तराय कर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पंच लब्धि (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) से युक्त होता है । अंतराय कर्म के क्षय से तेहरवें गुणस्थान में दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये जीव के पाँचों क्षायिक गुण प्रकट होते हैं । ये गुण जीव के स्वभाव हैं अतः निजगुण हैं, किसी बाहरी पदार्थ पर निर्भर नहीं हैं और न बाहरी जगत् से सम्बन्धित हैं । अत: सिद्ध होने पर ये गुण असीम, अनन्त रूप से प्रकट होते हैं। अन्तराय शब्द अन्तर से बना है, जिसका अर्थ है अन्तर आ जाना, अन्तर पड़ जाना, निरन्तर न रहना, कभी रहना कभी न रहना । अन्तर का अन्त तभी सम्भव है जब मिला हुआ सुख निरन्तर रहे तथा मिली हुई वस्तु सदा बनी रहे। इनका कभी अन्त न हो अर्थात् अनन्त हो। ये नौ उपलब्धियाँ ऐसी ही लब्धियाँ हैं । इसीलिए इन उपलब्धियों के साथ अनन्त विशेषण भी लगाया जाता है, यथा- अनन्त दान, अनन्त लाभ आदि । द्वितीय, जो असीम नहीं है, सीमित है, अखण्ड (पूर्ण) नहीं है - खण्डित है, वह अन्तयुक्त है अत: अनन्त नहीं है। तृतीय, जिसकी उपलब्धि अपने से भिन्न 'पर' पदार्थ पर निर्भर करती है वह भी अन्तराय रूप ही है, कारण कि जहाँ भिन्नता है वहाँ अन्तर है ही, परन्तु जिसकी अभिव्यक्ति स्वयं में ही हो वह अभिन्न होती है - वह अन्तर या अन्तराय रहित होती है। चतुर्थ, जो अन्तयुक्त है वह अन्तरयुक्त है। [246] जैतत्त्व सा

Loading...

Page Navigation
1 ... 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294