________________
सारांश यह है कि 'मैं' देह (काया) हूँ, देह (काया) में 'मैं'-पन होना, देह में अहंत्व होना, देहाभिमान है। देहाभिमान ही समस्त दोषों की जड़ है। दोषों से ही समस्त दु:खों की उत्पत्ति होती है। कोई दु:ख ऐसा नहीं है जिसका कारण कोई दोष नहीं हो और दोष का कारण देह से सम्बन्धित इन्द्रिय, मन, बुद्धि के विषयों की सुखासक्ति एवं देहाभिमान है। देहाभिमान से देह के अंग इन्द्रिय, मन और बुद्धि में जीवन-बुद्धि हो जाती है, जो इनके विषयों के भोगजन्य सुख की आसक्ति में आबद्ध करती है। सुखासक्ति देहाभिमान को पुष्ट करती है। देह का सम्बन्ध शरीर के अंग, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वस्तु आदि नश्वर, परिवर्तनशील व जड़ पदार्थों से होने से, देहाभिमान अमरत्व से मृत्यु की ओर, चेतनता से जड़ता की ओर ले जाता है। अतः हमें अमरत्व को, पूर्ण चैतन्य को, तत्त्वबोध को प्राप्त करने की ओर गति करना है तो विवेकपूर्वक देहाभिमान का अन्त करना होगा। देहाभिमान का अन्त करने के लिए इन्द्रियों के विषयों के द्वारा जो सुख मिलता है, चित्त के चिन्तन द्वारा जो सुख मिलता है, स्थिरता अथवा जड़ता द्वारा बुद्धि के अभिमान द्वारा जो सुख मिलता है, इनका व अन्य समस्त सुखों की आसक्ति का त्याग करना होगा। ये सब प्रकार के सुख देहाभिमान के आधार पर ही भोगे जाते हैं, अतः जब तक जीवन में सुख-लोलुपता रहेगी, तब तक देहाभिमान का, काया में जीवन-बुद्धि का अन्त नहीं हो सकेगा। सुख-लोलुपता ने ही हमें देहाभिमान में आबद्ध किया है।
सुख-लोलुपता का अन्त करने के लिए ही आत्म-निरीक्षण अंतर्यात्रा की साधना की जाती है। साधना से जैसे-जैसे सुख-लोलुपता रूप तृष्णा मिटती जाती है, वैसे-वैसे देहाभिमान स्वतः गलता जाता है। देहाभिमान जितना गलता व घटता जाता है उतना ही भोग-प्रवृत्ति, सुख-सामग्री की संग्रह वृत्ति, कर्म-बन्धन, कषाय व संसार का सम्बन्ध टूटता जाता है। सर्वांश में देहाभिमान का निरोध हो जाने पर कर्म, कषाय, संसार, विषयासक्ति का, तृष्णा का निषेध हो जाता है। जिसके होते ही देहातीत, इन्द्रियातीत, लोकातीत अलौकिक जीवन की अनुभूति हो जाती है। यह ही निर्वाण है। इसी में जीवन की सार्थकता व सफलता है।
प्राणी का सबसे अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध शरीर से होता है। उसके सारे क्रिया-कलाप, भोग-परिभोग शरीर के आश्रय से ही होते हैं। उसे शरीर का अस्तित्व अपना अस्तित्व प्रतीत होता है। देह के प्रति आत्म-बुद्धि (अपनापन) इतना दृढ़ हो जाता है कि 'मैं देह हूँ' उसे ऐसा आभास होता है। देह में ऐसा अहंत्व व देहाभिमान
[238]
जैनतत्त्व सार